Thursday, March 29, 2007

नदियां नहीं, जोहड़ जोड़ो

राजेन्द्र सिंह
विश्व बैंक, आईएमएफ, डब्लूटीओ तीनों दुनिया में एक नया उपनिवेशवाद कायम कर रहे हैं। इनके नये औजार बाजारीकरण, निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों ने विकासशील समाजों में भयानक आर्थिक संकट पैदा करने के साथ ही पर्यावरण का भी भारी विनाश किया है। जैव विविधता और प्रकृति की अनमोल देनों का एक-एक करके निजीकरण किया जा रहा है। प्रकृति के अमूल्य उपहारों का मोल-भाव किया जा रहा है। इस साजिश के तहत अब नदियों पर कब्जे की रणनीति भी बनाई जा रही है।
इसी मंशा से विश्वबैंक के कर्जे से 7 लाख करोड़ रुपये की भारी-भरकम नदी-जोड़ो परियोजना चलाने की बात की जा रही है, जो बहुराष्ट्रीय साजिश का ही एक नया पैंतरा है। 1960 में सिंचाई मंत्री के एल राव ने यह सुझाव दिया था कि जिन क्षेत्रों में ज्यादा बाढ़ आती है उन्हें सूखी नदियों से जोड़ दिया जाय, जहाँ सूखा पड़ता है वहाँ जलवाली नदियों का रुख कर दिया जाय तो देश में बाढ़-सुखाड़ की समस्या से निपटा जा सकता हैं पर योजना आयोग ने इस सुझाव को नकार दिया था। क्योंकि एक नदी से दूसरी नदी में पानी पहुंचाने में बहुत सारे श्रम, तकनीक और पैसे की जरूरत थी और यह आसान काम भी नहीं था। लेकिन अब से तीन साल पहले स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर भाषण देते हुए राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने नदी-जोड़ो परियोजना के महत्व को रेखांकित किया। उनके भाषण के आधार पर दाखिल याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दे दिया कि नदी-जोड़ो परियोजना को सरकार लागू करे। लेकिन सरकार ने इस योजना में 6.5 लाख करोड़ के अनुमानित खर्च का जबाबी पत्र दाखिल किया। साथ ही कहा है कि इस काम में लगभग 45 साल लगेंगे। जिस पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि 'हमारे देश में पैसे की कमी नहीं है। इसलिए सरकर इस परियोजना को जल्दी शुरु करे और रही बात राज्यों की सहमति की, तो उसकी भी कोई बड़ी समस्या नहीं है। उसके लिए परियोजना के नियम व स्वरूप ऐसे बनाए जाएं कि राज्यों की सहमति की जरूरत ही न पड़े।' उच्चतम न्यायालय के इस आदेश के बाद बिना कुछ सोचे समझे नदी-जोड़ो परियोजना पर कार्य किया जा रहा है। मात्र राष्ट्रपति के भाषण पर आधारित उच्चतम न्यायालय के इस तर्कहीन निर्णय में न जनता की सहभागिता है और न ही राज्यों की।
6.5 लाख करोड़ रुपये की नदी-जोड़ो परियोजना का कुल खर्च हमारे वार्षिक राजस्व का ढाई गुना है। 2001-02 में किए गए सरकारी आर्थिक सर्वे के अनुसार इस परियोजना की कुल लागत भारत के सकल घरेलू उत्पाद के बचत से ज्यादा है और भारत के कुल विदेशी कर्ज से भी 54,000 करोड़ ज्यादा है। इतनी बड़ी रकम कहां से आएगी? शायद आखिरी विकल्प कर्ज ही होगा। अगर नदी-जोड़ो परियोजना के लिए कर्ज लिया जाता है तो हर भारतवासी 5,000 रुपयें कानया कर्जदार हो जाएगा जो औसतन वार्षिक आय का 20 फीसदी होगा। कर्ज का वार्षिक ब्याज 20-30 हजार करोड़ रुपये बैठेगा। तो ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर कौन यह सब कर्जे चुकाएगा और कैसे? इतने बड़े कर्जे के लिए गारंटी में क्या दांव पर लगाया जाएगा?
गुजरात के कच्छ-सौराष्ट्र में सरदार सरोवर और नर्मदा को ही पानी का माध्यम बनाने की बात तय की गयी थी और अब तक इस योजना पर 22,000 करोड़ रु. खर्च हो चुके हैं, लेकिन परिणाम अच्छे नहीं हैं। इन सबसे सबक लेने की जरूरत है। यही समय है जब सही दिशा में सोचना, अपनी प्राथमिकताओं और कर्तव्यों को समझना है। देश को दुर्दशा से बचाने के लिए ही नदी जोड़ो का विकल्प तलाशा गया है....जोहड़ जोड़ो। हमारा दावा है कि भूजल संरचनाओं के गिरने से धरती के पेट में बहने वाली नदियां सदानीरा बनकर सहज रूप से जुड़ जाएंगी। इससे न केवल बाढ़ और सूखे की समस्या का निदान होगा, साथ ही सबको सहज और मुक्त रूप से पानी मिलेगा। जोहड़ जुड़ना, समाज के साथ भी जुड़ना है। जोहड़ जोड़ने का सीधा सा आर्थ है, धरती का पेट पानी से भरना।
जल का अर्पण-समर्पण ही भूजल दोहन और पुनर्भरण है। दोहन और पुनर्भरण का संबंध आज टूट चुका है। इसी कारण बाढ़-सुखाड़ की समस्या गहराती जा रही है। नदी जोड़ो से इसे रोक पाना संभव नहीं है, जोहड़ जोड़ो इसे संभवबनाता है। जोहड़ों को बचाने, जर्जर जोहड़ों के जीर्णोध्दार और नये जोहड़ों के निमार्ण का कार्य प्रधानमंत्री राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत कराया जा सकता है। 25,000 करोड़ रुपये हमें रोजगार पर खर्च करने हैं। इस राशि को जोहड़ बनाने, जल संरचनाओं को पानीदार बनाने, जल निकासी के रास्ते को ठीक करने के काम में लगाने से जल-जन के कार्य सहज ही सध जायेंगे। हमारी सरकार काम तो मशीनों से करवा रही है और युवाओं को बेरोजगारी भत्ता दे रही है। वह यह भूल रही है कि पैसा बांटने से रोजगार और जल नहीं मिलने वाल है॥ जल संरचनाओं की जगह खोजने से लेकर, जोहड़ बनाने, श्रमदान जुटाने तथा लेखा-जोखा रखने का काम युवाओं से कराया जा सकता है। राजस्थान के बहुत से गांव जोहड़ की साझी मिल्कियत का समान उपयोग कर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। जोहड़ भूमिहीन गरीबों का सबसे बड़ा सहारा है। जब से गांव के जोहड़ों पर सरकार और दबंगो ने कब्जे कर लिए हैं तब से ही गरीबों की गांव से उजड़ने की प्रक्रिया तेज हुई है। जोहड़ के जुड़ने से शहर पर दबाव कम होगा। शहर की कच्ची बस्तियों में रहने वाले वापिस अपने गांव में लौटने लगेंगे।
अभी भी वक्त है सही निर्णय लेने का, आखिर हम क्या चाहते है? विश्वबैंक से कर्जा लेकर भारी-भरकम नदी जोड़ो परियोजना, जहां हरेक भारतीय पर 112 डालर का कर्ज होगा, भारत बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साजिश का शिकार होकर गुलाम-जर्जर बना रहेगा, जहां बेरोजगार युवा, आतंक और अपराध के सिवाय कुछ नहीं होगा, बस होगा तो भूख, गरीबी और दहशत। दूसरी ओर है, जोहड़ जोड़ो योजना, जिसमें लगभग 7 लाख करोड़ रुपये नहीं, मात्र 25,000 करोड़ रुपये की लागत है। विदेशी कर्ज नहीं, कोई विश्व बैंक या विदेशी कंपनी नहीं बल्कि अपना ही धन, अपने ही लोग होंगे, बनाने वाले भी, इस्तेमाल करने वाले भी। हमारे पानी पर किसी की मिल्किय नहीं होगी बल्कि प्रकृति की अमूल्य धरोहर पानी पर सबका साझा अधिकार होगा। रोजगार बढ़ेगा, शहर को पलायन नहीं होगा। गांव की संस्कति, भारतीय संस्कृति कायम रहेगी। कर्ज के बोझ से दबा भारत नहीं, बल्कि समृध्द और खुशहाल भारत होगा। बस अब ये सोचना है कि हमें जाना किधर है ''बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गुलामी की ओर या भारतीय संस्कृति और सम्प्रभुता की प्रतिष्ठा जोहड़ की ओर।''

बाजार तो किसान को बर्बाद ही करेगा

देवेन्द्र शर्मा
अमरीका, यूरोप सहित अन्य सभी धनी व औद्योगिक देशों में किसान किसानी छोड़ रहे हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है; क्यो? उन्हें तो बहुत मात्रा में सब्सिडी मिलती है। शिक्षित होने और तकनीकी ज्ञान का लाभ भी उन्हें मिला है। 'कमोडिटी मार्केट' में 'फ्यूचर ट्रेडिंग' भी वे कर सकते हैं। सुपर मार्केट के रिटेल स्टोरों से जुड़कर वे उपभोक्ता मूल्यों में एक बड़ा हिस्सा भी प्राप्त कर सकते हैं। फिर भी आखिर किसान किसानी छोड़ रहे हैं।
धनी व औद्योगिक देशों में किसान किसानी छोड़ रहे हैं, कैसे सम्भव हो सकता है, जबकि बाजार किसानों के लाभ के लिए काम कर रहे हैं? यह कैसे सच माना जाए, जबकि निजी क्षेत्र को किसानों की आय बढ़ाने वाला माना जा रहा है। निश्चय ही कुछ अन्य कारण हैं जिससे विकसित देशों में पारिवारिक खेत खत्म हो रहे हैं। धनी देशों में खेती होने की जमीनी सच्चाई को या तो हम समझ नहीं पा रहे है या फिर 'बाजार अर्थव्यवस्था' और खेती के बारे में हमारी समझ ठीक नहीं है।
इसका सबसे बुरा पहलू तो यह है कि खेती का 'बाजार अर्थव्यवस्था' वाला नुस्खा भारतीय किसानों पर भी अजमाया जा रहा है। कोई यह जानना नहीं चाहता कि खेती का यह मॉडल पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में आखिर कारगर क्यों नहीं हुआ? नीति-निर्माता और 'कृषि व्यवसायी कंपनियां' यह कहते नहीं थकतीं कि इस परिर्वतन से न केवल दूसरी हरित क्रान्ति आएगी बल्कि किसानों को पुरानी मंडी व्यवस्था से भी छुटकारा मिल जाएगा। वे कभी यह नहीं बताते कि खेती का यह मॉडल अमरीका में भी क्यों असफल हो रहा है। ऐसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। आज जो सबसे बड़ा बदलाव आया है कि खेती 'कृषि की बहुराष्ट्रीय कंपनियों' कें हाथों में चली गयी है।
यूरोप को ही देख लीजिए! यह खेती पर सबसे ज्यादा सब्सिडी देता है। खेती में प्रवेश, जमीन खरीदने, गाय-सुअर या घोड़े, कृषि यंत्रों, जैवविविधता के संरक्षण और बाड़ लगाने आदि अनेक तरह के कार्यो पर सब्सिडी प्राप्त की जा सकती है। ग्रामीण ढांचा बहुत योग्यतापूर्वक काम करता है। किसानों को साख और बीमा आदि प्राप्त हैं और भारत की तरह मंडियां भी नहीं है। दूसरें शब्दों में कहें तो किसान पूरी तरह से निजी बाजारों से जुड़ा है।
लेकिन फिर भी, प्रति मिनट एक किसान खेती छोड़ रहा है। अमरीका में खेती से ज्यादा लोग तो जेलों में हैं। लगभग 70 लाख लोग जेलों में या पैरोल पर और जमानत पर हैं। केवल 7 लाख लोग ही खेती में हैं। धन्य है ऐसी किसानी नीतियां जिनके कारण अमरीकी किसान खेती से अलग हो रहे हैं। अमरीका की 2000 में हुई पिछली जनगणना में तो पहली बार ऐसा हुआ कि किसानों की संख्या ही नहीं गिनी गयी। किसानों की संख्या में इतनी कमी ने एक ऐतिहासिक मोड़ ला दिया है। कभी खेती की बात करने वाला अमरीका, आज कंपनियों और मशीनों की बात करता है।
दूसरी ओर, सुपर बाजारों से जुड़ी औद्योगिक कृषि व्यवस्था होने के बावजूद भी अमरीका में बिचौलियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। बिचौलियों की यह नयी प्रजाति पूरी तरह संगठित और आपस में जुड़ी हुई है। उत्तम नियंत्रणकर्ता, मानक तय करने वाला, काम करने वाला और खुदरा व्यापारी सभी एक ही स्थान पर उपलब्ध हैं। बिचौलियों की संख्या बढ़ने के कारण ही किसानों की आय कम हुई है। अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि 1995 में किसान ने जब अपने 1 डालर मूल्य वाले उत्पाद को बाजार में बेचा तो उसे 70 सेंट की आय हुई और दस वर्ष बाद, 2005 में किसान की 1 डालर मूल्य की बिक्री पर आय गिरकर मात्र 4 सेंट रह गई; बाकी पैसा दलालों की जेबों में गया।
वालमार्ट, टेस्को, रिलांयस और भारती टेलीफोन जैसे वैश्विक व्यापारियों को खुदरा क्षेत्र में प्रवेश की बात बार-बार दोहराने वाले अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों का कहना है कि कंपनियों की जो नयी मूल्य श्रृंखला (जैसे: ई-चौपाल) बनायी गयी है उसमें दलालों की भूमिका नहीं है, इसलिए मंडियों के बंद होने का खतरा बढ़ गया है; इसी करण ये दलाल नाराज है। पर किसानों के लिए नयी आशाएं और नये अवसर बढ़ेंगे। लेकिन सच्चाई तो यह है कि इसी वैल्यू चेन के कारण ही अमरीका के किसान कंगाल हुए थे। अगर मक्का की 'दूसरी हरित क्रान्ति वाली' स्थिति हुई तो, मैं सोच नहीं पा रहा हूं कि जब रिटेल चेन पर कंपनियां काबिज होंगी, तब भारतीय किसानों का क्या होगा?
अमरीका में किसानों की समस्याओं को जानकर सरकार ने खुद पहल करके उन्हें प्रत्यक्ष सहायता दी, कि शायद इससे समस्या हल हो जाए। किसानों को संघीय सहायता के रूप में हरेक को करीब 33,000 अमरीकी डालर प्रतिवर्ष प्राप्त होता है। कनाडा के 'राष्ट्रीय किसान यूनियन' ने अपने अध्ययन में स्पष्ट किया है कि खाद्य श्रृंखला में किसानों को तो घाटा ही हो रहा है, जबकि 70 'कृषि व्यवसायी बहुराष्ट्रीय कंपनियों' लाभ कमा रही हैं। अजीब बिडंबना है कि अमीर देशों में किसान केवल सरकारी सहायता पर जिंदा रह गये हैं।
दक्षिण एशिया के देशों में पाकिस्तान के बाद अब भारत के 60 करोड़ किसानों की बारी है। अमीर और ओद्योगिक देशों के किसानों की तरह अब भारत के किसान की बारी है अत्याचार सहने की। छोटे किसान-समुदायों के पास जो कुछ भी है अब उसे कब्जाया जा रहा है। यह काम न केवल 'कृषि व्यवसायी बहुराष्ट्रीय कंपनियां' कर रही हैं, बल्कि निजी बैंक और नयी माइक्रोफाइनेंस (स्वसहायता समूह) भी संगठित महाजन की जगह निजी सूदखोरों को बाजार में उतारकर अपने कार्यों का दायरा बढ़ा रहे हैं। मंशा साफ है 'जैसा कि आईसीआईसीआई के प्रमुख के.बी. कामथ ने बताया है कि ग्रामीण क्षेत्रों से बहुत पैसा कमाया जा सकता है।'
इसलिए यह समझ साफ बना लेनी चाहिए कि बाजार में किसान की कहीं जगह नहीं है। यह नया 'बाजार अर्थव्यवस्था' का नुस्खा किसानों के लिए नहीं है। इससे न तो गांव को मकान मिलना है और न ही उनके बच्चों को स्कूल। वैश्विक अनुभव तो यहीं सिखाता है कि यह नुस्खा केवल 'कृषि व्यवसायी बहुराष्ट्रीय कंपनियों' के पेट भरने के लिए है। कौन कहता है कि किसान इस 'बाजार अर्थव्यवस्था' में अपना हिस्सा ले सकता है?