Thursday, March 29, 2007

'हैव्स' और चोरों में बंटी दुनिया

शाहनवाज आलम
पिछले दिनों दिल्ली से निकलनें वाले तमाम अख़बारों में दिल्ली की कांग्रेसी सरकार द्वारा बिजली चोरी रोकनें के सन्दर्भ में एक विज्ञापन प्रकाशित करवाया गया, जिसमें लुंगी-कुर्ता और सर पर गमछा बाँधे हुए एक गरीब-मज़दूर किस्म के आदमी को साइकिल पर बिजली के खम्भों को गठरी में बाँधकर भागते हुए दर्शाया गया है। विज्ञापन के ऊपर बड़े अक्षरों में लिखा है, 'ये आपके हिस्से की बिजली चुराता है।'
भूमण्डलीकरण के इस दौर की सरकारों के चरित्र के कुछ पहलुओं को 'जनहित' में जारी किए गए इस एक विज्ञापन मात्र से समझा जा सकता है। पहली बात तो ये कि अब इस व्यवस्था में गरीबों-मजदूरों के लिए कोई जगह ही नहीं रही, बल्कि उन्हें अब चोर भी माना जाने लगा है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो सरकर वर्षों से बिजली कर न देने वाले किसी नेता, मंत्री या उद्योगपति को ही बिजली चुराकर भागते हुए दिखाती। दूसरा ये कि अब सरकारों का दायित्व गरीबों के बजाय चन्द अमीरों के शुभचिन्ता की ही रह गयी है। इसीलिए उसने 'आप' को सम्बोधित करते हुए आगाह किया है कि चोरों से सावधान रहें। यह 'आप' किसको इंगित करके कहा गया है, समझा जा सकता है। इस 'आप' का सम्बोधन पिछले साल भी सुनने को मिला था जब केन्द्रीय शिक्षण संस्थानों में पिछडों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया जा रहा था। तब कई चैनलों के समाचार वाचक 'आप' के बच्चों का भविष्य अब अन्धकारमय है, कहते हुए आरक्षण विवाद से सम्बन्धित ख़बरें पढ़ते थे।
गरीबों-मज़दूरों को सरकारों द्वारा चोर मानना और उन्हीं का हक-हिस्सा मारकर अमीर हुए 'आप' लोगों का उनकी चिंता के केन्द्र में आ जाना वैश्वीकरण की वो खासियत है जो उसे उसके पुराने अवतार पूँजीवाद से अलग करता है। नब्बे से पहले जब हमारी सरकारें पूँजीवादी ढाँचे में कल्याणकारी होने का मुखौटा लगाकर काम करती थीं तब आम गरीबों को चोर बताने का साहस तो नहीं ही करती थीं और ना ही खुलकर 'आप' लोगों के पक्ष में खड़ी होती थीं। कम से कम सार्वजनिक रूप से तो ऐसा करना उनके लिए असम्भव था। हालांकि अन्दर ही अन्दर ये सब होता था। लेकिन अब भूमण्डलीकरण के साथ जो राजनीतिक-आर्थिकी आयी है उसके तहत गरीबों को चोर माना जाना एक आम बात है जिस पर किसी भी राजनैतिक दल को कोई आपत्तिा नहीं होती। दूसरे अर्थे में जहाँ पूँजीवादी दौर में दुनिया हैव्स और 'हैव्स नॉट' (जिनके पास है और जो वंचित है) में बंटी मानी जाती थी और उनके बीच की दूरी को पाटने के नाम पर राजनीति होती थी तो वहीं अब भूमण्डलीकरण के दौर में दुनिया 'हैव्स और चोरों' के बीच बंटी बताई जा रही है और राजनीतिक दलों का काम 'हैव्स' के पक्ष में खड़े होकर चोरों को भगाना हो गया है। यानि जिन तबकों को पहले सामाजिक, आर्थिक और ऐतिहासिक कारणों से पीड़ित मानकर उनके हक-हुकूक की बात होती थी अब उन्हें ही दोषी बताकर सजा देने की कवायद चल रही है। जो सरकारें इन पीड़ित तबकों को जितना विस्थापित करके भगाती हैं या आत्महत्या करने को मजबूर करती हैं, उन्हें 'हैव्स' की चाकरी में लगी पत्र-पत्रिकाएँ उतना ही बड़ा विकास दृष्टा बताती हैं।
दरअसल भूमण्डलीकरण के इस दौर में गरीबों के प्रति सरकारों का रवैया कैसा होगा, इसकी बानगी हमें राजग के शासनकाल में ही मिल गयी थी, जब अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन दिल्ली आए थे। तब दिल्ली को साफ-सुथरा करने के नाम पर सरकार ने वहां से भिखारियों को भगाना शुरू कर दिया था। भाजपा के लिए ऐसा करना कोई आश्चर्यजनक नहीं था, क्योंकि वे जिस व्यवस्था को पुन: स्थापित करने में लगी है, उसमें भिखारियों के लिए कोई जगह हो ही नहीं सकती, क्योंकि उनमें लगभग 95 प्रतिशत अछूत जातियों के ही होते हैं, जिनकी मनुवादी ढाँचे में कोई जगह नहीं। बहरहाल, लोकसभा चुनावों में राजग के जाने के बाद कांग्रेस एक बदले हुए नारे के साथ केन्द्र में लौटी। इस बदले हुए नारे ने ही उसके इरादों को जाहिर कर दिया कि अब खुद मेहनत-मजदूरी करके जीने वाले गरीबों की भी खैर नहीं। कांग्रेस ने इस चुनाव में नारा दिया था-''कांग्रेस का हाथ आपके साथ''। जबकि अब से पहले नारों में उसका हाथ गरीबों के साथ हुआ करता था। उसके हाथ के 'आप' के साथ होने का मतलब अब समझ में आ रहा है जब वो गरीबों को चोर कहकर भगा रही है।
सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि ऐसा दिल्ली को विकसित करने के नाम पर हो रहा है, जिसके लिए 2010 में होने वाले राष्ट्रमण्डल खेलों से पहले एक मास्टर प्लान के तहत 'अनाधिकृत' कालोनियों से 40 लाख लोगों को खदेड़ने की योजना है। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि जहां पहले विकास का मतलब पूरी आबादी के विकास से होता था, वहीं अब इसका मतलब समाज में एक बहुत बड़े तबके का विनाश हो गया है। दरअसल भूमण्डलीकरण के इस दौर में विकास सबसे डरावना शब्द बनकर उभरा है। यकीन न हो तो सिगूंर या नन्दीग्राम या बझेड़ा खुर्द के किसानों से पूछ लीजिए वो बता देंगे कि उन्हें किसी ओसामा से नहीं बल्कि विकास से डर लगता है।

भूमि अधिग्रहण के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन स्वरूप लेने लगा है

देश भर में चल रहे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ राष्ट्रीय सभा का आयोजन 7-8 फरवरी 2007 नई दिल्ली के लोधी रोड स्थित 'इण्डियन सोशल इंस्टीयूट' में किया गया। इस सभा का आयोजन पूर्व वित्त सचिव (भारत सरकार) एस.पी.शुक्ला, सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण और नवधान्य की संस्थापिका डा. वंदना शिवा द्वारा किया गया। सभा का उद्देश्य जमीनी स्तर के आंदोलनों को राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ाना है, जो सेज के लिए कब्जाई जा रही जमीनों के अभियान के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। सभा में उपस्थित अनेक नीति निर्माताओं, विशेषज्ञों और लड़ने वालों ने एक साथ मिलकर जमीन और जमीन संबंधी अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक रणनीति पर विचार कियां। इस अवसर पर सेज अधिनियन के सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक-राजनैतिक स्वरूप का विश्लेषण भी किया गया, जिससे यह बात साफ-साफ दिखाई देने लगी कि सेज कुछ नहीं है बल्कि लाखों किसानों से जमीनें छीनकर उन्हें कंगाल बना देने की एक बहुराष्ट्रीय साजिश है।
पहली बार ऐसा हुआ है कि देश के विभिन्न भागों के बहुराष्ट्रीय भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लड़ने वाले जनांदोलन अपने संघर्ष को तेज करने के लिए एकजुट हो गए हैं। किसान जागरूक मंच (गुड़गां-झज्जर), भारत किसान यूनियन एकता (पंजाब), विदर्भ जनांदोलन (महाराष्ट्र), कर्नाटक राज्य रैयत संघ नंदीग्राम के किसान आंदोलन और अन्य संगठनों ने राष्ट्रीय सभा में मिलकर संघर्ष के लिए विचार किया। विभिन्न आंदोलनकारियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में चल रहे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ संघर्षों के बारे में भी बताया। उनके व्याख्यानों में विद्रोह के स्वर स्पष्ट सुनाई दे रहे थे। कर्नाटक राज्य रैयत संघ की ओर से कर्नाटक में हो रहे संघर्ष के बारे में बोलते हुए बासवराजू ने कहा-''सारे गांव को ब्रोंकरों और बिचौलियों का गांव बनाया जा रहा है।''
अनुराधा तलवार जिनको सिंगूर में गिरफ्तार कर लिया गया था। 6 फरवरी को जेल से रिहा होने के बाद सीधे ही प. बंगाल से राष्ट्रीय सभा में पहुंची। उन्होंने बताया कि तेभागा आंदोलन में औरतों ने कहा है कि ''हम जान दे देगें लेकिन चावल नहीं देंगें'', ''हम जान दे देंगे लेकिन जमीनें नहीं देंगे।'' वालमार्ट की सप्लायर 'ट्रिडेंट ग्रुप ऑव इण्डट्रीज' के द्वारा बरनाला में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ संघर्ष कर रहे भारत किसान यूनियन एकता के सुखदेव सिंह ने बताया कि कैसे पुलिस ने गांव में आतंक फैला रखा है और जमीन की रक्षा करते हुए किस तरह तीन किसान भी शहीद हुए हैं। लेकिन किसान अब भी डटे हुए हैं। इस अभियान को उन्होंने ''मातृभूमि रक्षा'' का नाम दिया है। 31 जनवरी को पुलिस के साथ हुई आमने-सामने की भिड़ंत में 70 किसान घायल हो गए थे, इस संघर्ष की अगुवाई पन्द्रह वर्षीय एक लड़की द्वारा की गई थी। 9 फरवरी को बच्चे और औरतें मिलकर एक आंदोलन करेंगे जिसका नारा है ''बच्चा-बच्चा झोक देंगे, जमीन ते कब्जा रोक देंगे।''
गुड़गांव और झज्जर में रिलायंस के खिलाफ लड़ने वाले 22 गांवों के जागृत किसान मंच की ओर से सद्बीर गुलिया ने बताया कि सेज बनाकर सरकार प्रोपर्टी डीलर बन गई है और जमीनें कब्जाने वाले बहुराष्ट्रीय माफिया राज्य के शासक बन बैठे हैं। पूर्व नौ सेना अध्यक्ष एडमिरल रामदास, जो अब महाराष्ट्र के अलीबाग में किसानी करते हैं, वे भी 22 गांवों की समिति के सदस्य हैं और भारत के सेज (सिलेक्टिव एक्सक्लूसिव जमींदार) से अपनी जमीनें बचाने के लिए लड़ रहे हैं। उन्होंने बताया कि ''मैने 45 वर्षों तक देश की रक्षा के लिए काम किया है और अब सरकार हमारी जमीनों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दे रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा हथियाई जा रही जमीनों की सबसे बड़ी कीमत उड़ीसा के किसानों और आदिवासियों को चुकानी पड़ी है। 2001 में काशीपुर में 3 और 2006 में कलिंग नगर में 13 आदिवासी मारे गए उड़ीसा के प्रफुल सामंत ने बताया कि उडीसा ने 45 स्टील प्लांटो केलिए 2,00,000 एकड़ जमीन पर कब्जा किया जा रहा है।
इस अवसर पर वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने बताया कि भारत ने जमींदारी प्रथा खत्म करके भूमि हदबंदी की और भूमि सुधार किए, पर अब वही भारत नए जमींदारों की जमात पैदा कर रहा है।
गुड़गांव-झज्जर संघर्ष के महावीर गुलिया ने घोषणा की कि सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यह सोचना छोड़ देना चाहिए कि वे किसानों को थोड़े से पैसे का लालच देकर जमींन से उनके रिश्ते को तोड़ देंगे। डा. वंदना शिवा और डा. उत्सा पटनायक ने बताया कि जब इंग्लैण्ड में किसानों को उजाड़ा गया था तो उन्होंने अमरीका में रेड इण्डियनों की, आस्ट्रेलिया में अबोरिजन और अफ्रीका में देसी समुदायों की जमीनों पर उपनिवेश बना लिए थे। अगर भारत के खेतों पर भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने उपनिवेश बना लिए तो भारत के उजड़े किसान कहां जाएगें?
जनांदोलनों ने सेज के खिलाफ एक साथ लड़ने का संकल्प किया। पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह, जनमोर्चा के अध्यक्ष आगरा के सांसद राजबब्बर ने भी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के आंदोलन का साथ देने की घोषणा की। महाराष्ट्र के भूमंडलीकरण विरोधी आंदोलन के प्रमुख एन.डी. पाटिल भी इस सेमिनार में शामिल हुए और कहा कि सेज अधिनियम को खत्म किया जाना चाहिए। भारत जनांदोलन के नेता व पूर्व कमिश्नर बीडी शर्मा भी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लड़ रहे हैं, उन्होंनें भी सभा को संबोधित किया और आंदोलनों ने भारत में सेज के खिलाफ विरोध की राष्ट्रीयव्यापी करने का संकल्प किया।

स्विस बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनी-नोवारटिस की भारतीय पेटेन्ट कानून को चुनौती

स्विटजरलैण्ड की दवा बहुराष्ट्रीय कम्पनी नोवारटिस ने मद्रास उच्च न्यायालय में थोड़े से बदलावों के साथ एक ऐसी दवा को पेटेन्ट कराने के लिये अर्जी दी है जिसको यह पहले ही 1993 में पेटेन्ट करा चुकी है। दवा का नाम ग्लीवाक (ळसममअंब) है। यह रक्त कैंसर-ल्यूकेमियां के इलाज में काम आती है। कम्पनी ने भारतीय पेटेन्ट एक्ट के सेक्शन 3 (डी) को कोर्ट में चुनौती दी है। यह सेक्शन 3 (डी) भारतीय संसद ने मार्च 2005 में ही पेटेन्ट कानून में जोड़ा है। विश्व व्यापार संघटन में दवा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाब में ही भारत को संशोधित पेटेन्ट कानून स्वीकार करना पड़ा था। इसी संशोधित पेटेन्ट कानून में सरकार ने सेक्शन 3 (डी) भी जोड़ दिया था जो उपलब्ध दवाओं के अणुओं या फार्मूलों में छोटा सा बदलाव करके ही चालाकी पूर्ण पेटेन्ट लेने के बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के इरादों को रोकता है।
भारत को अपने पेटेन्ट कानून-1970 में बुनियादी बदलाव करने पड़े थे। इस पेटेन्ट कानून को अंकटाड ने एक माडल पेटेन्ट कानून की संज्ञा दी थी। इन बदलावों के द्वारा भारतीय पेटेन्ट कानून को ट्रिप्स के अनुरूप बनाया गया था। उत्पाद पेटेन्ट का प्रावधान शामिल किया गया और पेटेन्ट अवधि को 5-7 वर्ष से बढ़ा कर 20 वर्ष कर दिया गया। इन संशोधनों का काफी विरोध हुआ था। वामपंथी पार्टियों ने विरोध किया था। परन्तु संशोधित कानून में जोड़े गये सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा उपायों के प्रावधानों ने विपक्ष को शांत किया। ये वहीं प्रावधान है जिनको दवा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अब निशाना बना रही है।
ग्लीवाक दवा का मामला भारतीय पेटेन्ट कानून के लिए एक परीक्षा साबित होने जा रहा है। यदि नोवारटिस कम्पनी मुकदमा जीतती है और ग्लीवाक पर पेटेन्ट हासिल कर लेती है, तब तमाम जीवन रक्षक दवाओं पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा पुन: पेटेन्ट लेने का दरवाजा खुल जायेगा। और फिर ये दवाऐं सामान्य आदमी की पहुंच से बाहर हो जायेंगी। उदाहरण के लिए ग्लीवाक की घरेलू कीमत महज 8,000 रुपया महीना पड़ती है जबकि नोवारटिस द्वारा पेटेन्टड ग्लीवाक की कीमत 1,20,000 रुपया महीना बैठती है। अन्य उदाहरण एड्स की दूसरी श्रेणी की दवाओं के मामले में उपलब्ध हैं। ये दवाइयाँ 1995 से पहले भी ज्ञात थीं और इसी कारण भारत में इन दवाइयों पर अब पुन: पेटेन्ट नहीं दिया जा सकता। परन्तु दवा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ इन दवाओें के फार्मूलों में हल्का परिवर्तन करके, या दो दवाओं का मिश्रण बना कर और उसे नयी दवा का नाम देकर नया पेटेन्ट लेने की कोशिश कर रही है। ये चाल बाजियाँ बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हमेशा करती रहती है जिससे उनका पेटेन्ट अधिकार 'एवरग्रीन' बना रहे। यदि नये भारतीय पेटेन्ट कानून में से सेक्शन 3 (डी) निकाल दिया जाता है या उसे कमजोर कर दिया जाता है, जैसा कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की मांग है, तो ये चाल बाजियाँ कामयाब हो जायेंगी और भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा की धज्जियाँ उड़ जायेगीं। इसका परिणाम होगा एड्स की दवाइयाँ 20-25 गुना महंगी हो जायेंगी। भारत सस्ती एड्स दवाओं का उत्पादक है, और इसकी दवाइयाँ पूरे विश्व में जाती है जिससे भारतीय जनों के स्वास्थ्य की रक्षा की जा सके। इस बीच, भारत को सेक्शन 3 (डी) के पक्ष में भारतीय न्यायालयों या अन्य अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर जोरदार दलीलें प्रस्तुत करनी चाहिए और उसे बचाना चाहिए।

गर्मागर्म जलेबी पैकेट में ?

बलाश
अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया है कि दिल्ली की गलियों में खुली जलेबी नहीं बिकेगी। हलवाइयों की दुकानें, रेिढ़यां, ठेले जो खाने-पीने के सामन बेच रहे हैं, वे बीमारियों के अड्डे हैं। जो भी खाने-पीने के सामान हों, वे ठीक तरह से डिब्बा बन्द होने चाहिए।
इसी दिल्ली में 5 साल पहले छोटी ठेलियों पर छोटी हाथ की मशीनों या छोटे मोटर से चलने वाली मशीनों से पेर कर बनने वाले गन्ने के रस की बिक्री पर रोक लगा दी थी क्योंकि दिल्ली की सरकार को लगता था कि इस तरह से पेरा हुआ गन्ने का रस बीमारियां फैलाता है।
लगता है वे दिन लद गये जब सबेरे-सबेरे हीरा हलवाई की गरम-गरम जलेबियां कड़ाव से निकली हुए दौने में रख कर खाने का मजा उठाते थे। या तो हीरा हलवाई दुकान बंद कर देगा, या फिर उसे अपनी जलेबियां अच्छी तरह से पैक करनी होंगी और आप अगर उन्हें गरम-गरम खाना चाहते हैं तो घर आकर अपने माइक्रोओवन में रख कर पहले गरम कीजिए। तभी तो माइक्रोओवन का महत्व आपको समझ में आयेगा।
अगर हमारे हीरा भाई किसी तरह दुकान बचा भी ले गये तो उन्हें पेप्सी या वालमार्ट से कम्पटीशन लेना होगा। चिप्स वाला पेप्सी जलेबी को दिन में 6 बार टीवी पर दिखायेगा। उसमें कुछ विटामिन भी भर देगा, उसकी जलेबी खाने से बच्चे स्मार्ट हो जायेंगे, तब बेचारे हीरा भाई कहां ठहरेंगे?
यह हो क्या रहा है ? यह एक घटना से साफ हो जायेगा। हमारे एक दोस्त दिल्ली में मंत्री बन गये। हमने अपने दोस्त से कहा, आप शिक्षामंत्री हैं, हमारे एक और दोस्त आपके साथ रक्षामंत्री हैं। शिक्षामंत्री, रक्षामंत्री दोनों ही स्वदेशी के कायल हैं। क्यों न आप लोग पेप्सी कोला, कोका कोला को बन्द करा देते? हमारा लायक दोस्त बोला, कोई इस काम के लिए तैयार नहीं। मैं लाचार हूं। अपने दोस्त को ढांढस बंधाते हमने कहा, दुखी मत होइए। हम तो सरकार नहीं चला रहे। हमें सलाह दो कि हम क्या करें। लायक दोस्त ने कहा, 'ये गन्ने का रस बेचने वाले बड़े गन्दे होते हैं, इन्हें सफाई सिखाओ।
दरअसल इन 'गगन विहारियों' का नजरिया बदल गया है। इनको भारत की मिट्टी, भारत के लोग, भारत के सामान गन्दे लगते हैं। गन्ने का रस गन्दा है, क्योंकि वह बोतल बंद नहीं है, ताजा निकाला गया है। पेप्सी-कोक शुध्द हैं क्योंकि वे बोतल बंद हैं भले ही उसमें जहरीले रसायन मिले हों, भले ही उसमें कीटनाशक मिले हों। हमारी दृष्टि बदल दी गयी है। दिन-रात आक्रामक विज्ञापनबाजी से हमें खुद सोचने की जरूरत नहीं छोड़ी है। हमारे लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा है, यह बड़ी-बड़ी कंपनियां विज्ञापन से बनाती हैं। मनोविज्ञान के सहयोगिता सिध्दांत का लाभ उठा कर ये हमारे मन में बैठे प्रतीकों के साथ अपना ब्रांड जोड़ देते हैं। अत: बिना सोचे-समझे उसे हम अपना लेते हैं। हमारे दिमाग में ब्रांड बैठा दिये गये हैं। यदि किसी चीज का ब्रांड नहीं है तो हम मान लेते हैं कि वह खरे मानक की नहीं है।
ब्रांडों की इस दुनिया में छोटे उत्पादक और छोटे बिक्रेता के लिए कोई जगह नहीं है। यही कारण है कि जब कोई बड़े ब्रांड का स्टोर खुल जाता है तो लोग अपनी पुरानी दुकान से सामान न खरीद कर उस ब्रांड स्टोर की तरफ भागते हैं। पिछले 10-15 सालों में हमारे छोटे-मझोले दुकानदारों, खुदरा व्यापारियों ने ज्यादा कमीशन के चक्कर में नामीगिरामी ब्रांडों के सामानों को बेचा। जब एक बार लोगों के दिमाग में ब्रांड बैठ गया तो ब्रांड वाले खुद अपने स्टोर खोलने निकल पड़े हैं। इस समय देश में खुदरा बाजार में रिलायंस, भारती, आईटीसी, टाटा की मदद से वाल-मार्ट, मैट्रो,टैस्को और कारफूर घुस रहे हैं और अगर इसे न रोका गया तो ये चार सालों में ही खुदरा व्यापारी-दुकानदार, अपनी दुकानें बंद करके सड़क पर खोमचा भी नहीं लगा सकेंगे।

बहुराष्ट्रीय गुलामी के खिलाफ धारदार लड़ाई का समय

पिछले 15 सालों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जो जाल भारत के ऊपर फैल रहा है, उसका असली चेहरा अब उजागर हो रहा है। इन कंपनियों ने विश्वबैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मदद से और कर्ज में फंसी भारत सरकार की कमजोरी का फायदा उठा कर 1991 में घुसने का विधिवत रास्ता बना लिया था। केन्द्र सरकार ने विश्वबैंक और मुद्रा कोष के दबाव में नयी आर्थिक और नयी औद्योगिक नीतियां बनायीं जिन्होंने विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उद्योग, सेवा और वित्त के क्षेत्र में घुसने का रास्ता साफ कर दिया। एनआरआई (अप्रवासी भारतीयों) को आगे करके हजारों कंपनियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था में घुसपैठ शुरू कर दी। इन कंपनियों के सामने कुछ रुकावटें थी, मात्रात्मक प्रतिबन्ध (क्यूआर) और निवेश की सीमा बांधने के कारण। उन्हें भी कानूनी संस्था विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) के द्वारा दूर कर लिया गया। इस तरह नब्बे के दशक में एक के बाद एक सरकारों ने विदेशी कंपनियों के लिए भारत की अर्थव्यवस्था और बाजार को खोल दिया।
भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के इस दौर में कई सार्वजनिक प्रतिष्ठान बेच दिये गये। एनडीए सरकार ने तो इस काम के लिए एक मंत्रालय ही खोल दिया था। कई भारतीय कंपनियों को विदेशी कंपनियों ने खरीद लिया विलयन (मर्जर) कर लिया। इससे कर्मचारियों की छंटनी हुई। उन्होंने थोड़ा-बहुत शोर भी किया। बैंक-बीमा में विदेशियों को घुसने की इजाजत देने का बैंक और बीमा कर्मचारियों ने भारी विरोध किया, करोड़ों हस्ताक्षर कराये, हड़ताल भी की पर वे रोक न पाये।
आजादी बचाओ आंदोलन जैसे आंदोलन देश में इस नयी गुलामी के खिलाफ जागरूकता अभियान शुरू से ही चला रहे हैं। स्कूल-कालेजों के विद्यार्थियों को इस आंदोलन ने झकझोरा है। उन्हें समझाने की कोशिश की है कि यह किसी एक-दो क्षेत्र का मामला नहीं है। एक सुनियोजित बड़ा हमला है जिसके सामने एकाध अपवाद को छोड़ कर सभी सरकारें घुटने टेक चुकी हैं। उल्टे वे हमलावरों का साथ देकर, अपनी गद्दी बचाने के चक्कर में देश के साथ गद्दारी कर रही हैं।
सूचना तकनीकी का लाभ उठा कर बहुराष्ट्रीय हमलावर और उनके साथ मिलीभगत करने वाली सरकार लोगों को बहकाने के लिए आक्रामक प्रचार करती रही हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति फैला कर आम आदमी की तीखी प्रतिक्रिया को भोथरा करने की भी कोशिश बड़े पैमाने पर जारी है। लोगों को बेरोजगारी, मंहगाई, गरीबी और भारी गैरबराबरी का सामना करना पड़ रहा है जिससे उनके मन में आक्रोश है जो अभी दबा हुआ है।
इधर सरकार के दो बड़े निर्णयों ने विरोध की परिस्थिति में विस्फोटक का काम किया है। पहला निर्णय है विशेष आर्थिक क्षेत्रर् ;ैम् सेजध्द खोलने का। हजारों एकड़ जमीन किसानों से लेकर देशी-विदेशी कंपनियों को दी जा रही है। इन क्षेत्रों को 'विदेशी इलाके' ;वितमपहद जमततपजवतलध्द का दर्जा दिया जा रहा है जिनमें कोई भी भारतीय कानून लागू नहीं होगा। दूसरा निर्णय है खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश को इजाजत देना। अमरीका की विशालकाय कंपनी वाल-मार्ट, जर्मनी की मेट्रो, इंग्लैण्ड की टैस्को और फ्रांस की कारफूर देश के खुदरा बाजार में भारतीय कंपनियों-रिलायंस, भारती, टाटा का हाथ पकड़ कर घुस रही हैं।
इन दोनों निर्णयों से देश में लाखों किसान, छोटे व्यापारी विरोध पर उतर आये हैं। किसानों के बड़े-बड़े प्रदर्शन और संघर्ष देश के कई प्रदेशों-महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में उठ खड़े हुए हैं। कई शहरों में खुदरा व्यापारी भी आन्दोलन कर रहे हैं। जमीन और खुदरा व्यापार देश के कोई 70 करोड़ लोगों की आजीविका का आधार है। अब लोगों को बहुराष्ट्रीय हमले का नंगा रूप दिखायी पड़ रहा है।
बड़े आंदोलन की क्रान्तिकारी परिस्थितियां बन रही हैं। इस वक्त सभी जनसंगठनों के साथ एकजुट होकर इस संघर्ष को धारदार बनाने का समय आ गया है। यह शुभ संकेत है कि नक्सलपंथी लोगों ने भी इन कंपनियों को अपने निशाने पर लिया है। किसानों, छोटे दुकानदारों, व्यापारियों के साथ देश के विद्यार्थी, नौजवानों को जोड़ने और लामबंद करने की जरूरत है। आजादी बचाओ आंदोलन इस काम में गंभीरता से जुटा है। दूसरा जरूरी काम है कि कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सीधा निशाना बनाया जाय और उनका कारोबार को सिविल नाफरमानी द्वारा ठप्प कराया जाय। इन कंपनियों में मोनसांटो, वालमार्ट,पेप्सी-कोका कोला, आईटीसी तथा रिलायंस और भारती को पहले दौर में लक्ष्य बनाया जा सकता है।
इस पूरे संघर्ष में एक खास सावधानी रखने की जरूरत है। इस सघर्ष में नए नेतृत्व को उभरने का पूरा मौका देना चाहिए। पूरी कोशिश होनी चाहिए कि राजनैतिक दलों के लोग यदि समर्थन दें तो पीछे से समर्थन दें, नेतृत्व उनके हाथ में न जाने दिया जाय। नहीं तो, जे. पी. आंदोलन जैसी भूल होने की संभावना होगी।

उच्च शिक्षा में विदेशी पूंजी निवेश: एक महा छलावा

प्रो. एम. आनन्द कृष्णन
(केन्द्र सरकार के वाणिज्य मंत्रालय ने ''हायर एजूकेशन इन इण्डिया एण्ड गैट्स: एन अपारचुनिटी'' नाम से एक पेपर जारी किया, जिसने भारत के शैक्षिक क्षेत्र के विद्वानो को चिंता में डाल दिया कि क्या भारत के उच्च शिक्षा क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश को आमंन्त्रित करना हमारे हित में है, क्या विदेशी पूंजी निवेश की मदद से हम उन चुनौतियों का सामना कर सकेंगें जो उच्च शिक्षा क्षेत्र में हमारे सामने है। प्रसिध्द शिक्षाशास्त्री और शिक्षा प्रशासक प्रो. एम.आनन्द कृष्णन ने फ्रंटलाइन पत्रिका को दिये इन्टरव्यू में इस खतरें को उठाया है। प्रो. आनन्द कृष्णन अन्ना विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके है और वर्तमान में आई.आई.टी. कानपुर के चेयरमैन है। उनके इण्टरव्यू के कुछ अंश हम यहाँ प्रकाशित कर रहे है: सम्पादक)
प्रश्न: क्या आप समझते हे कि वाणिज्य मंत्रालय द्वारा शिक्षा सेवाओं में व्यापार के मसले पर जारी पर्चा परिस्थितियों को सही दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है?
उत्तार: बहुत तेज आर्थिक वृध्दि के दावे के बाबजूद, हम उच्च शिक्षा की मांग को पूरा करने में समर्थ नहीं हो सके हैं। माध्यामिक शिक्षा में एनरोलमेंट बढ़ रहा है और काफी छात्र उच्च शिक्षा चाहते हैं। लोग उच्च शिक्षा को सामाजिक बदलाव और आर्थिक सुरक्षा का माध्यम मानते हैं। हम सभी उच्च शिक्षा चाहने वाले छात्रों को उच्च शिक्षा सुविधाऐं उपलब्ध नहीं करा पाये हैं। इन अधिकांश छात्रों में निपुणता का तत्व गायब है। यहां तक तो वाणिज्य मंत्रालय का अध्ययन तथ्यात्मक रुप से सही है। पिछले 10 वर्षों के दौरान उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र प्रभावकारी रहा है। उदाहरण के लिये, 92 प्रतिशत व्यावसायिक शिक्षा संस्थाऐं निजी क्षेत्र के हाथ में है। सरकार ने उच्च शिक्षा को पूरी तरह निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ दिया है। इसलिए निजी क्षेत्र में पिछले 10 वर्षों में 75 फीसदी वृध्दि हुई है और सरकारी क्षेत्र में महज 5 फीसदी। उच्च शिक्षा अभी भी सभी इच्छुक छात्रों को उपलब्ध नहीं हैं।
प्रश्न: क्या आप इस विचार से सहमत है कि विदेशी पूंजी निवेश उच्च शिक्षा क्षेत्र को ठीक करने के लिये एक मात्र रास्ता है? क्या कोई अन्दरूनी समाधान उपलबध नही है?
उत्तार: गम्भीरता के साथ जिस विकल्प की बात की जा रही है वह यह कि उच्च शिक्षा को विदेशी पूंजीनिवेश के लिए खोल देने से इसकी बढ़ती हुई मांग को पूरा किया जा सकेगा। मैं इसे एक भ्रम मानता हूँ। यह ऐसा छलावा है जो वास्तविकताओं को अनदेखा करता है। विदेशी पूंजी निवेशक साधारणतया: निर्माण के क्षेत्रो में या बैकिंग जैसी सेवा के क्षेत्र में निवेश करते हैं। जब शिक्षा में निवेश का मामला आता है तो वे अपने कापीराइट युक्त शिक्षा उत्पादों, जैसे कोर्सवेयर आदि, को बेचने में ही रुचि रखते है। वे इस देश में शिक्षा क्षेत्र में एक धेला भी लेकर नहीं आने वाले।
अभी भी विदेशी निवेश प्रमोशन बोर्ड द्वारा बनाये गये नियमों के तहत 'आटोमेटिक रुट' के रास्ते विदेशी निवेशक भारत में आ सकते हैं। परन्तु पिछले 10 वर्षो में, यद्यपि भारत में लगभग 150 किस्म के विदेशी शिक्षा कार्यक्रम उपलब्ध कराये जा रहे हैं, परन्तु विदेशी निवेशको: ने यहाँ एक पैसा भी निवेश नहीं किया है। वे अभी भी इस तरह के पाठयक्रम चला रहे है जिनका कुछ हिस्सा भारत में तथा कुछ हिस्सा विदेशों में पूरा करना पड़ता है या ऊँची फीस के बदले बिना किसी गुणवत्ताा की डिग्री कोर्सो की बिक्री कर रहे है। इसलिए, विदेशी पूंजी निवेशकों से यह उम्मीद करना कि वे भविष्य में भारत में पूंजी निवेश करेंगें, एक काल्पनिक बात है।
अब हमें उन पूंजी निवेशकों को भी देखना चाहिए जो हमारी उच्च शिक्षा में निवेश करने के इच्छुक हो सकते है। एम.आई.टी., हावर्ड विश्वविद्यालय, स्टेन्फोर्ड, येल और प्रिंसटन जैसे विश्वविद्यालय भारत के उच्च शिक्षा के गिने चुने संस्थानो के साथ शोध और विकास हेतु विद्वानों के आदान-प्रदान तथा ग्रीष्मकालीन लघु पाठयक्रमों जैसे कामों में जुड़ना चाहेंगें। भारत में अपनी डिग्री देने में उनकी कोई रूचि नहीं होगी। यदि वे ऐसा करते भी है तो केवल सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठित संस्थानो के साथ जुड़कर ही ऐसा करेंगे। केवल दूसरे या तीसरे दर्जे के विदेशी सस्ंथान ही यहां अपनी दुकान खोलने के लिए आ सकते हैं। पहले तो ये संस्थान भी विदेशी छात्रो को अपने घरेलू संस्थानो में दाखिला लेने के लिए ही प्रोत्साहित करना चाहेगे। किन्तु यह देखकर कि अधिकांश भारतीय इनके घरेलू कैम्पस में जाकर महंगी शिक्षा का खर्चा बरदास्त नहीं कर सकते, वे अपने कार्यक्रम इस देश में भी शुरु कर सकते हैं। इस समय लगभग 150 ऐसे पाठयक्रम देश में उपलब्ध भी है जिनमें लगभग 15,000 भारतीय पढ़ रहे है। इनके बारे में सही आंकड़े उपलब्ध नहीं है क्योंकि इनकी मानिटरिंग का काम कोई एजेंसी नहीं कर रही।
परन्तु यदि आप पिछले दस वर्षों के दौरान शुरु किये गये इन 150 पाठयक्रम की गुणवत्ताा की जांच पड़ताल करें तो आप पायेंगें कि ये दूसरे या तीसरे दर्जे के विदेशी संस्थानों द्वारा चलाये जा रहे हैं और इनका उद्देश्य केवल व्यावसायिक है। इन संस्थानों ने यहां अपना कोई कैम्पस नहीं खोला है बल्कि दूसरे दर्जे के निजी भारतीय संस्थानों के साथ गठबन्धन करके व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए काम कर रहे है।
इनकी कार्यप्रणाली का दुखद पहलू यह भी है कि इनके द्वारा चलाये जा रहे कोर्सों की इनके अपने देश में ही कोई मान्यता नहीं है। एक सर्वे के मुताबिक 150 कोर्सो मे से 44 उनके अपने देशों में ही अमान्य हैं। ये संस्थान भारतीयों को मूर्ख बना कर और उनकी विदेशी डिग्री की लालसा का फायदा उठा कर केवल मुनाफा कमा रहे हैं।
केवल एक पूंजी निवेशक का उदाहरण अभी तक मिलता है। वह है अमरीका का निजी व्यावसायिक संस्थान सिल्वान इंस्टीटयूट जिसने हैदराबाद में अपना कैम्पस खोला। इस संस्थान का एक आफिस मलेशिया में है और वहीं से यह भारतीय शाखा को संचालित कर रहा है। लेकिन इसने विद्यार्थियों और अपने फैकल्टी सदस्यों को बिना बताये शीघ्र ही अपना बोरिया विस्तर समेट लिया था। दो और ऐसे विदेशी संस्थान हैं जिन्होने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक तरीकों से भारत में प्रवेश किया। ये है-पिट्सबर्ग का कार्नेगी मैलन विश्वविद्यालय और शिकागो का इलीनोय इंस्टीटयूट आफ टेकानालाजी जो इजीनियरिंग परास्नातक की डिग्री कोर्स चलाता है। ये दोनो भी असफल सिध्द हुऐ क्योंकि इनमें फीस बहुत ज्यादा थी। इसलिए इस देश मे उच्च शिक्षा में विदेशी पूंजी निवेश आयेगा, यह अपेक्षा एक छलावा ही है। यदि हम यह मान भी लें कि विदेशी पूंजी निवेश आयेगा तो मेरा आकलन यह है कि यह धन इस देश के निजी संस्थानो द्वारा कमाया गया काला धन होगा जो विदेशी रास्तों के द्वारा यहाँ पहुंचेगा।
प्रश्न: यदि विदेशी पूंजी निवेशक यहां उच्च शिक्षा में निवेश करने में रूचि लेते हैं तो इस क्षेत्र में उनका योगदान क्या होगा? वे किस सीमा तक हमारी राष्ट्रीय महत्वाकाक्षओं, जरूरतों और भारत की जमीनी हकीकतों के साथ तालमेल बैठा सकेंगे?
उत्तार: यदि यह मान भी लिया जाय कि विदेशी पूंजी निवेशक इस देश में आ ही जायेंगें, तो भी इस देश की जरुरतों या यहां के सास्कृतिक संदर्भो के मुताबिक पाठयक्रम शुरु करने में उनकी कोई रुचि नहीं होगी। उदाहरण्ा के लिए वे प्रान्तीय भाषाओं के विकास में कोई रुचि नही लेंगें, परन्तु वे भारतीय संस्थानो के साथ बराबरी का दर्जा मांगेगें। भारत में औपचारिक शिक्षा एक जनहितार्थ उपक्रम मानी जाती है। भारत में बहुत से निजी शिक्षण संस्थान जनहितार्थ खुले हुए हैं हांलाकि वे खुले रूप से मुनाफा कमाते है। डब्लू.टी.ओ. के गैट्स (जनरल एग्रीमेंट आन ट्रेड इन सर्विसेज) कानूनों के तहत एक प्रावधान है जिसे 'राष्ट्रीय व्यवहार' (छंजपवदंस ज्तमंजउमदज) का प्रावधान कहते है जिसका अर्थ यह होता है कि आपको विदेशी संस्थानो के साथ भी 'राष्ट्रीय व्यवहार' करना होगा। अब हम अपने निजी संस्थानों को चैरिटेबल संस्थान मानते है तो उन्हें भी चैरिटेबल संस्थान मानना होगा। चैरिटेबल संस्थानों को टैक्स से छूट मिली होती है।
इसी तरह से, जैसे हमारे निजी संस्थान प्रवेश नियमों पर किसी तरह का नियन्त्रण या फीस निर्धारण पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं चाहते, विदेशी संस्थान भी ऐसा ही चाहेंगे। वे शिक्षा में आरक्षण नीति को लागू करना भी नहीं चाहेंगे।
यदि आप सोचते हैं कि ये संस्थान गरीबों या वंचितों की जरूरतों को पूरा करेगें तो ऐसा सोचना गलत है। इसलिए विदेशी पूंजी निवेशकों को यहां अनुमति देने का मतलब होगा गरीबों और अमीरों के बीच की खाई को और चौड़ा करना। इसके ऊपर, वे हमारे उच्च संस्थानों के उच्च शिक्षकों को ऊँचा वेतन एवं अन्य सुविधाओं का लालच देकर यहां से भगा ले जायेंगें। वे किसी अर्थवान निवेश के बगैर ही और हमारी जरूरतों को पूरा किये बिना ही ऊँचा मुनाफा कमा कर यहां से ले जायेंगें।
भारत में सरकार ने उच्च शिक्षा को वैसे भी निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ दिया है। और अब यदि विदेशी निवेशकों के लिए भी दरवाजे खोल दिये जायेंगें,और वे यहां आना शुरु कर देंगें तो सरकार को अपनी नीति को जायज ठहराने का एक और तर्क मिल जायेगा।
प्रश्न: सरकार हमेशा पैसे की कमी का रोना रोती है?
उत्तार: मैं नही मानता कि इस देश में उच्च शिक्षा के लिए पैसे की कमी कोई समस्या है। यदि सरकार जी.डी.पी. के 6 प्रतिशत को शिक्षा में निवेश करने का अपना वादा पूरा कर दे, इसमे 1 प्रतिशत उच्च शिक्षा के लिए होगा, और 0.5 प्रतिशत वोकेशनल एजुकेशन के लिए होगा, तो बिना निजी क्षेत्र की मदद के हम विश्वस्तरीय बड़े संस्थान खडे क़र सकते हैं। फिलेन्थ्रोपिक संस्थाओं और कार्पोरेट समूहों को प्रोत्साहित करने की नीति पर सरकार चल रही है। तो इस प्रकार से बिना विदेशी पूंजी निवेश के हम उच्च शिक्षा को चला सकते है।
प्रश्न: विदेशी पूंजी निवेश के सम्बन्ध में अन्य देशों का कैसा अनुभव रहा है?
उत्तार: वाणिज्य मंत्रालय के पर्चे में भी अन्य देशों में विदेशी निवेश की चर्चा की गयी है। दुर्भाग्य से, मत्रांलय द्वारा प्रस्तुत मूल्यांकन भ्रमपूर्ण और अति सरलीकृत है। उदाहरण के लिए, इंग्लैड में कुल 150 उच्च शिक्षण्ा संस्थानों में से केवल 4 ही विदेशी (अमरीकी) विश्वविद्यालय है। इन 4 के मामले में, बिट्रिश सरकार ने उन्हें मुनाफा कमाने वाले संस्थान के रूप में मान्यता दे रखी है न कि चैरिटेबिल संस्थान के रूप मे। वहां केवल एक राष्ट्रीय निजी विश्वविद्यालय है जो चैरिटेबल संस्थान के रूप में काम कर रहा है। अन्य सभी सार्वजनिक वित्ता पोषित संस्थान है। इंग्लैण्ड के कानून निजी विश्वविद्यालयों को अनुमति नहीं देते।
मलेशिया में अलग ही स्थिति है। इस देश की भूमिपुत्र नीतियों के कारण यहां की सरकार चीनी और गैर मलाया लोगों के लिए शिक्षा की वे सुविधाऐं उपलब्ध नहीं कराती जो मलाया लोगो के लिये कराती है। वहाँ की सरकार ने गैर मलाया और चीनी लोगों को उच्च शिक्षा उपलब्ध कराने के लिये निजी और विदेशी निवेशकों को वहाँ संस्थान खोलने की अनुमति दे रखी है।
चीन में विदेशी शिक्षा संस्थानों के लिए बड़े कड़े कानून है। एन.आई.आई.टी. चीन में अपना संस्थान चलाता है। परन्तु यह किसी प्रकार की डिग्री नहीं देता। यह केवल व्यावसायिक, तकनीकी, निपुणता केन्द्रित और व्यापार-केद्रित प्रोग्राम चलाता है। जैसा कि यह भारत में भी करता हैं। सिंगापुर में कुछ चुंनीदा विश्व स्तरीय शिक्षण संस्थानों को अपना कार्यक्रम चलाने की अनुमति मिली हुई है। कौन उच्च शिक्षा पाठयक्रम चलायेगा, इस बारे में सिंगापुर में कड़े कानून हैं। ऐसा सिंगापुर के निवासियों के लिये नहीं है क्योंकि उनकी सभी उच्च शिक्षा सबंधी जरूरतों को सरकार पूरा करती है। केवल विश्व स्तरीय संस्थान ही सिंगापुर में अपना संस्थान खोल सकते है, वे भी विदेशी विद्यार्थियों को आर्किषित करने के लिए। सिंगापुर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के साथ मिल कर एम.आई.टी. वहां एक पाठयक्रम चला रहा हैं। आस्ट्रेलिया के 120 विश्वविद्यालयों मे से केवल एक-न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय को सिंगापुर में कैम्पस खोलने की इजाजत मिली है और वह भी वास्तविक पूंजी निवेश करने के बाद। यह विश्वविद्यालय भी भारतीय, इण्डोनेशियाइयों, मलाया लोगो के लिये ही पाठयक्रम चलाता है, सिंगापुर वासियों के लिए नहीं। अन्य शब्दों में कहें तो सिंगापुर विदेशी विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा वह भी विश्व स्तरीय, प्रदान करने का केन्द्र बनना चाहता है जिससे वे आस्ट्रेलिया या अमरीका न जाय और वहाँ आये। इसलिएं वहां कड़े नियन्त्रण्ा हैं।
इण्डोनेशिया जैसे देशों में भी यदि कोई विदेशी विश्वविद्यालय कारोबार करना चाहता है तो उसकी अपने देश और इण्डोनेशिया दोनो जगह मान्यता होनी चाहिए। भारत ही केवल ऐसा एक देश है जहां कोई भी आ सकता है और किसी भ्ी प्रकार की डिग्री का विज्ञापन कर सकता है। इस तरह की बहुत सी डिग्रियाँ और डिप्लोमा पाठयक्रम चल रहे है जिनकी कोई मान्यता नहीं है और वे मूल्यहीन है। उनका पाठयक्रम (करीकुला) का कोई स्तर नहीं है, और ये संस्थान अखबारों में पूरे पृष्ठो के आर्कषक विज्ञापन देकर ऐसे पाठयक्रमों में विद्यार्थियों को आकर्षित करते हैं जिनको उनके अपने देश में मान्यता नहीं मिली हुई। जब ऐसे विज्ञापनों को देखते हैं तो बहुत से छात्र इनके जाल में फंस जाते है। और दुर्भाग्य से भारत में ऐसी कोई सरकार की एजेन्सी या प्राधिकरण नहीं हैं जो इस प्रकार के संस्थानो की निगरानी करें और उनको (विदेशी शिक्षण संस्थानाें), कहे कि छात्रों को प्रवेश देने से पहले आप अपना पंजीकरण कराओ। कुछ संस्थान छात्रों को दाखिल करते हैं, पाठयक्रम चलाते हैं और अचानक गायब हो जाते हैं। छात्रों को यहां कोई सुरक्षा नही है।

जरूरी हो गया है भारत की न्यायिक व्यवस्था का पुनर्गठन

प्रशांत भूषण
ऐसी धारणा बनती जा रही है कि अब न्यायपालिका ही देश की एक मात्र अमलदार और जिम्मेदार संस्था रह गयी है, और यही अपराधियों द्वारा नियंत्रित सरकार के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन देश का बहुत बड़ा तबका थोड़े से भी न्याय की उम्मीद न्यायपालिका से नहीं करता है। गरीब लोग तो न्यायालय तक पहुंच ही नहीं पाते। इसकी औपचारिकताओं और जटिल प्रक्रियाओं के कारण केवल वकीलों द्वारा ही न्यायालय तक पहुंच पाते हैं। उन्हें यह उम्मीद ही नहीं होती कि एक निश्चित समयावधि में उनके विवाद का निपटारा हो पाएगा। मुकदमें के निर्णय में जितने समय की सजा दी जाती है उससे ज्यादा समय तो मुकदमों की सुनवाई में ही लग जाता है। अगर इस दौरान मुवक्किल जेल से बाहर हुआ तो इस सारे मुकद्मे के दौरान अपने को बचाने की कवायद की परेशानी और सजा से ज्यादा खर्च और जुर्माना ही कष्टदायी हो जाता है।
न्यायालय द्वारा अगर किसी मुकदमे का निर्णय हो भी जाता है तो वह भी विकृतिपूर्ण ही होता है। वास्तव में पूरी न्यायिक प्रक्रिया ही भ्रष्टाचार की शिकार हो गयी है। जो लोग न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि न्यायपालिका में भी उतना ही भ्रष्टाचार है जितना कि राज्य की अन्य संस्थाओं में। न्यायपालिका में जवाबदेही के लिए कोई तंत्र न होने की वजह से, इसका भ्रष्टाचार दिखाई नहीं देता और मीडिया भी न्यायपालिका की अवमानना के डर से इसके खिलाफ कुछ भी कहने को तैयार नहीं है। वर्तमान न्यायिक व्यवस्था की कोई जवाबदेही न होने के कारण भ्रष्टाचार और भी ज्यादा बढ़ गया है। तथाकथित महाअभियोग की व्यवस्था के अतिरिक्त भ्रष्ट न्यायाधीशों को अनुशासित करने का अन्य कोई साधन नहीं है। इसके अलावा उच्चतम न्यायालय ने अपने ही एक निर्णय के द्वारा न्यायाधीशों के अपराध को जांच के दायरे से बाहर कर दिया है। यहां तक कि खुले रूप से रिश्वत लेने वाले किसी न्यायाधीश के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज कराने के लिए मुख्य न्यायाधीश की स्वीकृति लेना आवश्यक बना दिया गया है, जो कभी मिलती ही नहीं हैं। हद तो यह हो गयी है कि न्यायपालिका ने अपनी जवाबदेही से बचाव, अपने ही द्वारा बनाए निर्णयों से कर रखा है।
इन सबसे भी बड़े रक्षा कवच के रूप में न्यायापालिका के पास 'न्यायालय की अवमानना' की शक्ति है जिसके द्वारा यह 'न्यायपालिका के मूल्यांकन के लिए की गई जनालोचना' को भी चुप करा सकती है, और कर भी रही है। न्यायालय की अवमानना के भय ने ही मीडिया को भी न्यायपालिका के बारे में कुछ भी कहने से रोक रखा है। कुछ हद तक यह भी एक वजह है कि न्यायपालिका के बारे में कोई गम्भीर जनचर्चा नहीं हो पाती। अब ऐसा लग रहा है कि न्यायपालिका सूचना के अधिकार का पुनरीक्षण करने से भी पीछे हट रही है। पहले तो न्यायपालिका ने नागरिकों को यह अधिकार दिए कि उन्हें प्रत्येक सार्वजनिक संस्था के कार्यों के बारे में जानने का अधिकार है, लेकिन अब न्यायपालिका स्वयं ही न्यायालय के रजिस्ट्रार के ऊपर स्वतंत्र अपीलीय अधिकारी व केन्द्रीय सूचना आयोग के अधिकारों को खत्म करके सरकार से सूचना अधिकार अधिनियम के पुनरीक्षण से हटने को कह रही है। साथ ही यह तय करने का अधिकार भी मुख्य न्यायाधीश को दिया गया कि न्यायालय के बारे में कोई सूचना दी जाएगी या नहीं दी जाएगी। अधिकांश न्यायालयों ने तो सूचना अधिकार अधिनियम के अनुसार अभी तक किसी लोक सूचना अधिकारी की नियुक्ति भी नहीं की है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने तो यह नियम बनाया है कि न्यायालय से सम्बन्धित खरीदारी व नियुक्तियां आदि जैसी गैर-न्यायिक सूचनाएं नहीं दी जाएंगी। इस सबसे यह विश्वास हो चला है कि न्यायपालिका अपने आप में कानून बनती जा रही है जो बिल्कुल अपारदर्शी और अनुत्तरदायी हो गई है।
न्यायपालिका की कोई जवाबदेही न होने के कारण ही यह न्यायिक प्रक्रिया का उल्लंघन कर नीतियों के निर्माण और कार्यान्वयन में भी हस्तक्षेप कर रही है। अपनी ही व्याख्या द्वारा धारा 21, विशेषत: पर्यावरण से सम्बंधित अधिकारों का विस्तार करके, न्यायपालिका यमुना पुस्ता से बस्तियों को, दिल्ली की गलियों से फेरीवालों व रिक्शाचालकों को हटाए जाने के आदेश दे रही है, इसके साथ ही सरकारों को सर्वाधिक विवादास्पद 'नदी जोड़ों परियोजना' शुरू करने का भी आदेश दे चुकी है। कभी-कभी तो शक्तियां कार्यपालिका की इच्छा के विरूध्द इस्तेमाल की जाती हैं लेकिन उनके आनाकानी करने पर उन्हें ऐसा करने का आदेश दे दिया जाता है।
न्यायपालिका की जवाबदेही न रह जाने का यह परिणाम हुआ है कि न्यायपालिका आज गरीबों के अधिकारों को कुचल रही है। संविधान सभी को आवास और जीविका का अधिकार देता है लेकिन न्यायपालिका ने न केवल दिल्ली और मुम्बई के हजारों झुग्गीवासियों के घरों को तोड़ने के आदेश दे दिए हैं बल्कि हजारों फेरीवालों और रिक्शा चालकों को भी दिल्ली और मुंबई की सड़कों से हटाने के आदेश दे दिए हैं। इतना ही नहीं उनकी जीविका के लिए कोई और प्रबंध भी नहीं किया गया है। वर्गीय दम्भ और नई आर्थिक नीतियां न्यायाधीशों की मानसिकता पर इस कदर हावी हो रही हैं कि बाजार व्यवस्था के दबावों के कारण मानवाधिकारों को भी नजरअन्दाज किया जा रहा है। गैर जिम्मेदार न्यायपालिका संवैधानिक मूल्यों की उपेक्षा कर रही हैं। न्यायपालिका गरीबों के अधिकारों की रक्षा करने के बजाय पुलिसिया दबाव के हथकण्डे अपना रही है। लोग जिस तरह पुलिस को डर और घृणा से देखते हैं, उतनी ही घृणा और डर से अब न्यायपालिका को देखने लगे हैं।
न्यायिक व्यवस्था की कमियों पर विधि आयोगों ने कई बार विचार किया है। फिर भी इस चर्चा में कई अहम विचारणीय मुद्दों को छोड़ दिया जाता है जैसे गरीबों की न्यापालिका तक पहुंच, वर्गीय दम्भ, न्यायधीशों का क्षेत्राधिकार और न्यायिक जवाबदेही जैसे मुद्दे। विधि आयोगों ने भी पुराने सेवानिवृत न्यायाधीशों द्वारा स्थापित व्यवस्था की ही पुष्टि कर दी। न्यायपालिका के पुनर्गठन के लिए आवश्यक ठोस सुझाव देने की बजाय समस्या के समाधान के नाम पर लीपापोती कर दी गई है। हालांकि विलम्ब की समस्या के समाधान के लिए न्यायाधीशों की संख्या में 5 गुना वृध्दि करने की अनुशंसा जरूर की गई है लेकिन न्यायिक प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए कोई ठोस विचार प्रस्तुत नहीं किए गए हैं। न्यायपालिका को पारदर्शी और गरीबों के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में भी सुधार के लिए कोई सुझाव नहीं दिए गए। न्यायपालिका को जवाबदेह बनाने के लिए दिए गए सुझाव, एक कमजोर अवस्था की तरफ संकेत करते हैं जहां पीठासीन जज अपने ही सहकर्मियों के खिलाफ मुकद्मा करते दिखाई दे रहे हैं और जब वह सहकर्मी अपराधी दिखाई पड़ता है तो जज के महाभियोग पर पुन: विचार के लिए मामले को संसद में दोबारा भेज दिया जाता है। इस तरह विधि आयोग ने भी एक गैर जिम्मेदार न्यायपालिका की व्यवस्था कर दी है। कैबिनेट न्यायिक परिषद विधेयक के उस 'इन-हाऊस प्रोसीजर' को कानूनी दर्जा दिलाना चाहती है, जिसे जजों के खिलाफ शिकायतों की जांच के लिए करीब 10 वर्ष पहले मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में स्वीकार किया गया था लेकिन कभी व्यवहार में इस्तेमाल नहीं किया गया। विधि आयोग द्वारा प्रस्तुत कुछ ठोस सिफारिशों पर जैसे अब गौर नहीं किया जा रहा है, उसी तरह 20 वर्ष पहले की गई जजों की संख्या में 5 गुना वृध्दि की विधि आयोग की सिफारिश भी नजरअंदाज कर दी गई है। कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि ये दोनों ही न्यायिक व्यवस्था में सुधार के प्रति गम्भीर हैं। ऐसा लगता है कि दोनों ही वर्तमान गैर-जिम्मेदार और नाकारा व्यवस्था से खुश हैं। न्यायपालिका और कार्यपालिका वास्तव में मुखौटा चढ़ाकर एक साथ जुट गई हैं और मिलकर गरीबों की जमीन और अन्य प्राकृतिक संसाधन छीनकर बड़े व्यापारियों को दे रही हैं।
के तरीके में बदलाव नहीं करेंगे। न्यायपालिका ज्यादा शक्तिशाली, उच्छृंखल और गरीब-विमुख बनती जा रही है। वर्तमान व्यवस्था के हाथ में न्यायिक प्रशासन सौंपना, देश की आम जनता का गला घोंटने जैसा है। जनता को अब स्वयं ही न्यायिक व्यवस्था के सुधार का बीड़ा उठाना होगा। देश का हर नागरिक न्यायिक व्यवस्था के उचित कार्यान्वयन में भागीदार है। अपने इस अधिकर के प्रति उदासीन होने का अर्थ है, न्यायपालिका को गरीबों पर हावी होने देना। यह स्थिति अराजकता उत्पन्न कर देगी। न्यायिक प्रशासन के कार्यान्वयन की उचित व्यवस्था न होने से 'विधि का शासन' कायम नहीं रह सकता। आम आदमी की जरूरतों के अनुसार न्यायपालिका का पुनर्गठन करके जनता को ही इसमें सुधार लाना होगा।