Thursday, March 29, 2007

जरूरी हो गया है भारत की न्यायिक व्यवस्था का पुनर्गठन

प्रशांत भूषण
ऐसी धारणा बनती जा रही है कि अब न्यायपालिका ही देश की एक मात्र अमलदार और जिम्मेदार संस्था रह गयी है, और यही अपराधियों द्वारा नियंत्रित सरकार के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन देश का बहुत बड़ा तबका थोड़े से भी न्याय की उम्मीद न्यायपालिका से नहीं करता है। गरीब लोग तो न्यायालय तक पहुंच ही नहीं पाते। इसकी औपचारिकताओं और जटिल प्रक्रियाओं के कारण केवल वकीलों द्वारा ही न्यायालय तक पहुंच पाते हैं। उन्हें यह उम्मीद ही नहीं होती कि एक निश्चित समयावधि में उनके विवाद का निपटारा हो पाएगा। मुकदमें के निर्णय में जितने समय की सजा दी जाती है उससे ज्यादा समय तो मुकदमों की सुनवाई में ही लग जाता है। अगर इस दौरान मुवक्किल जेल से बाहर हुआ तो इस सारे मुकद्मे के दौरान अपने को बचाने की कवायद की परेशानी और सजा से ज्यादा खर्च और जुर्माना ही कष्टदायी हो जाता है।
न्यायालय द्वारा अगर किसी मुकदमे का निर्णय हो भी जाता है तो वह भी विकृतिपूर्ण ही होता है। वास्तव में पूरी न्यायिक प्रक्रिया ही भ्रष्टाचार की शिकार हो गयी है। जो लोग न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि न्यायपालिका में भी उतना ही भ्रष्टाचार है जितना कि राज्य की अन्य संस्थाओं में। न्यायपालिका में जवाबदेही के लिए कोई तंत्र न होने की वजह से, इसका भ्रष्टाचार दिखाई नहीं देता और मीडिया भी न्यायपालिका की अवमानना के डर से इसके खिलाफ कुछ भी कहने को तैयार नहीं है। वर्तमान न्यायिक व्यवस्था की कोई जवाबदेही न होने के कारण भ्रष्टाचार और भी ज्यादा बढ़ गया है। तथाकथित महाअभियोग की व्यवस्था के अतिरिक्त भ्रष्ट न्यायाधीशों को अनुशासित करने का अन्य कोई साधन नहीं है। इसके अलावा उच्चतम न्यायालय ने अपने ही एक निर्णय के द्वारा न्यायाधीशों के अपराध को जांच के दायरे से बाहर कर दिया है। यहां तक कि खुले रूप से रिश्वत लेने वाले किसी न्यायाधीश के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज कराने के लिए मुख्य न्यायाधीश की स्वीकृति लेना आवश्यक बना दिया गया है, जो कभी मिलती ही नहीं हैं। हद तो यह हो गयी है कि न्यायपालिका ने अपनी जवाबदेही से बचाव, अपने ही द्वारा बनाए निर्णयों से कर रखा है।
इन सबसे भी बड़े रक्षा कवच के रूप में न्यायापालिका के पास 'न्यायालय की अवमानना' की शक्ति है जिसके द्वारा यह 'न्यायपालिका के मूल्यांकन के लिए की गई जनालोचना' को भी चुप करा सकती है, और कर भी रही है। न्यायालय की अवमानना के भय ने ही मीडिया को भी न्यायपालिका के बारे में कुछ भी कहने से रोक रखा है। कुछ हद तक यह भी एक वजह है कि न्यायपालिका के बारे में कोई गम्भीर जनचर्चा नहीं हो पाती। अब ऐसा लग रहा है कि न्यायपालिका सूचना के अधिकार का पुनरीक्षण करने से भी पीछे हट रही है। पहले तो न्यायपालिका ने नागरिकों को यह अधिकार दिए कि उन्हें प्रत्येक सार्वजनिक संस्था के कार्यों के बारे में जानने का अधिकार है, लेकिन अब न्यायपालिका स्वयं ही न्यायालय के रजिस्ट्रार के ऊपर स्वतंत्र अपीलीय अधिकारी व केन्द्रीय सूचना आयोग के अधिकारों को खत्म करके सरकार से सूचना अधिकार अधिनियम के पुनरीक्षण से हटने को कह रही है। साथ ही यह तय करने का अधिकार भी मुख्य न्यायाधीश को दिया गया कि न्यायालय के बारे में कोई सूचना दी जाएगी या नहीं दी जाएगी। अधिकांश न्यायालयों ने तो सूचना अधिकार अधिनियम के अनुसार अभी तक किसी लोक सूचना अधिकारी की नियुक्ति भी नहीं की है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने तो यह नियम बनाया है कि न्यायालय से सम्बन्धित खरीदारी व नियुक्तियां आदि जैसी गैर-न्यायिक सूचनाएं नहीं दी जाएंगी। इस सबसे यह विश्वास हो चला है कि न्यायपालिका अपने आप में कानून बनती जा रही है जो बिल्कुल अपारदर्शी और अनुत्तरदायी हो गई है।
न्यायपालिका की कोई जवाबदेही न होने के कारण ही यह न्यायिक प्रक्रिया का उल्लंघन कर नीतियों के निर्माण और कार्यान्वयन में भी हस्तक्षेप कर रही है। अपनी ही व्याख्या द्वारा धारा 21, विशेषत: पर्यावरण से सम्बंधित अधिकारों का विस्तार करके, न्यायपालिका यमुना पुस्ता से बस्तियों को, दिल्ली की गलियों से फेरीवालों व रिक्शाचालकों को हटाए जाने के आदेश दे रही है, इसके साथ ही सरकारों को सर्वाधिक विवादास्पद 'नदी जोड़ों परियोजना' शुरू करने का भी आदेश दे चुकी है। कभी-कभी तो शक्तियां कार्यपालिका की इच्छा के विरूध्द इस्तेमाल की जाती हैं लेकिन उनके आनाकानी करने पर उन्हें ऐसा करने का आदेश दे दिया जाता है।
न्यायपालिका की जवाबदेही न रह जाने का यह परिणाम हुआ है कि न्यायपालिका आज गरीबों के अधिकारों को कुचल रही है। संविधान सभी को आवास और जीविका का अधिकार देता है लेकिन न्यायपालिका ने न केवल दिल्ली और मुम्बई के हजारों झुग्गीवासियों के घरों को तोड़ने के आदेश दे दिए हैं बल्कि हजारों फेरीवालों और रिक्शा चालकों को भी दिल्ली और मुंबई की सड़कों से हटाने के आदेश दे दिए हैं। इतना ही नहीं उनकी जीविका के लिए कोई और प्रबंध भी नहीं किया गया है। वर्गीय दम्भ और नई आर्थिक नीतियां न्यायाधीशों की मानसिकता पर इस कदर हावी हो रही हैं कि बाजार व्यवस्था के दबावों के कारण मानवाधिकारों को भी नजरअन्दाज किया जा रहा है। गैर जिम्मेदार न्यायपालिका संवैधानिक मूल्यों की उपेक्षा कर रही हैं। न्यायपालिका गरीबों के अधिकारों की रक्षा करने के बजाय पुलिसिया दबाव के हथकण्डे अपना रही है। लोग जिस तरह पुलिस को डर और घृणा से देखते हैं, उतनी ही घृणा और डर से अब न्यायपालिका को देखने लगे हैं।
न्यायिक व्यवस्था की कमियों पर विधि आयोगों ने कई बार विचार किया है। फिर भी इस चर्चा में कई अहम विचारणीय मुद्दों को छोड़ दिया जाता है जैसे गरीबों की न्यापालिका तक पहुंच, वर्गीय दम्भ, न्यायधीशों का क्षेत्राधिकार और न्यायिक जवाबदेही जैसे मुद्दे। विधि आयोगों ने भी पुराने सेवानिवृत न्यायाधीशों द्वारा स्थापित व्यवस्था की ही पुष्टि कर दी। न्यायपालिका के पुनर्गठन के लिए आवश्यक ठोस सुझाव देने की बजाय समस्या के समाधान के नाम पर लीपापोती कर दी गई है। हालांकि विलम्ब की समस्या के समाधान के लिए न्यायाधीशों की संख्या में 5 गुना वृध्दि करने की अनुशंसा जरूर की गई है लेकिन न्यायिक प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए कोई ठोस विचार प्रस्तुत नहीं किए गए हैं। न्यायपालिका को पारदर्शी और गरीबों के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में भी सुधार के लिए कोई सुझाव नहीं दिए गए। न्यायपालिका को जवाबदेह बनाने के लिए दिए गए सुझाव, एक कमजोर अवस्था की तरफ संकेत करते हैं जहां पीठासीन जज अपने ही सहकर्मियों के खिलाफ मुकद्मा करते दिखाई दे रहे हैं और जब वह सहकर्मी अपराधी दिखाई पड़ता है तो जज के महाभियोग पर पुन: विचार के लिए मामले को संसद में दोबारा भेज दिया जाता है। इस तरह विधि आयोग ने भी एक गैर जिम्मेदार न्यायपालिका की व्यवस्था कर दी है। कैबिनेट न्यायिक परिषद विधेयक के उस 'इन-हाऊस प्रोसीजर' को कानूनी दर्जा दिलाना चाहती है, जिसे जजों के खिलाफ शिकायतों की जांच के लिए करीब 10 वर्ष पहले मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में स्वीकार किया गया था लेकिन कभी व्यवहार में इस्तेमाल नहीं किया गया। विधि आयोग द्वारा प्रस्तुत कुछ ठोस सिफारिशों पर जैसे अब गौर नहीं किया जा रहा है, उसी तरह 20 वर्ष पहले की गई जजों की संख्या में 5 गुना वृध्दि की विधि आयोग की सिफारिश भी नजरअंदाज कर दी गई है। कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि ये दोनों ही न्यायिक व्यवस्था में सुधार के प्रति गम्भीर हैं। ऐसा लगता है कि दोनों ही वर्तमान गैर-जिम्मेदार और नाकारा व्यवस्था से खुश हैं। न्यायपालिका और कार्यपालिका वास्तव में मुखौटा चढ़ाकर एक साथ जुट गई हैं और मिलकर गरीबों की जमीन और अन्य प्राकृतिक संसाधन छीनकर बड़े व्यापारियों को दे रही हैं।
के तरीके में बदलाव नहीं करेंगे। न्यायपालिका ज्यादा शक्तिशाली, उच्छृंखल और गरीब-विमुख बनती जा रही है। वर्तमान व्यवस्था के हाथ में न्यायिक प्रशासन सौंपना, देश की आम जनता का गला घोंटने जैसा है। जनता को अब स्वयं ही न्यायिक व्यवस्था के सुधार का बीड़ा उठाना होगा। देश का हर नागरिक न्यायिक व्यवस्था के उचित कार्यान्वयन में भागीदार है। अपने इस अधिकर के प्रति उदासीन होने का अर्थ है, न्यायपालिका को गरीबों पर हावी होने देना। यह स्थिति अराजकता उत्पन्न कर देगी। न्यायिक प्रशासन के कार्यान्वयन की उचित व्यवस्था न होने से 'विधि का शासन' कायम नहीं रह सकता। आम आदमी की जरूरतों के अनुसार न्यायपालिका का पुनर्गठन करके जनता को ही इसमें सुधार लाना होगा।

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