Thursday, March 29, 2007

उच्च शिक्षा में विदेशी पूंजी निवेश: एक महा छलावा

प्रो. एम. आनन्द कृष्णन
(केन्द्र सरकार के वाणिज्य मंत्रालय ने ''हायर एजूकेशन इन इण्डिया एण्ड गैट्स: एन अपारचुनिटी'' नाम से एक पेपर जारी किया, जिसने भारत के शैक्षिक क्षेत्र के विद्वानो को चिंता में डाल दिया कि क्या भारत के उच्च शिक्षा क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश को आमंन्त्रित करना हमारे हित में है, क्या विदेशी पूंजी निवेश की मदद से हम उन चुनौतियों का सामना कर सकेंगें जो उच्च शिक्षा क्षेत्र में हमारे सामने है। प्रसिध्द शिक्षाशास्त्री और शिक्षा प्रशासक प्रो. एम.आनन्द कृष्णन ने फ्रंटलाइन पत्रिका को दिये इन्टरव्यू में इस खतरें को उठाया है। प्रो. आनन्द कृष्णन अन्ना विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके है और वर्तमान में आई.आई.टी. कानपुर के चेयरमैन है। उनके इण्टरव्यू के कुछ अंश हम यहाँ प्रकाशित कर रहे है: सम्पादक)
प्रश्न: क्या आप समझते हे कि वाणिज्य मंत्रालय द्वारा शिक्षा सेवाओं में व्यापार के मसले पर जारी पर्चा परिस्थितियों को सही दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है?
उत्तार: बहुत तेज आर्थिक वृध्दि के दावे के बाबजूद, हम उच्च शिक्षा की मांग को पूरा करने में समर्थ नहीं हो सके हैं। माध्यामिक शिक्षा में एनरोलमेंट बढ़ रहा है और काफी छात्र उच्च शिक्षा चाहते हैं। लोग उच्च शिक्षा को सामाजिक बदलाव और आर्थिक सुरक्षा का माध्यम मानते हैं। हम सभी उच्च शिक्षा चाहने वाले छात्रों को उच्च शिक्षा सुविधाऐं उपलब्ध नहीं करा पाये हैं। इन अधिकांश छात्रों में निपुणता का तत्व गायब है। यहां तक तो वाणिज्य मंत्रालय का अध्ययन तथ्यात्मक रुप से सही है। पिछले 10 वर्षों के दौरान उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र प्रभावकारी रहा है। उदाहरण के लिये, 92 प्रतिशत व्यावसायिक शिक्षा संस्थाऐं निजी क्षेत्र के हाथ में है। सरकार ने उच्च शिक्षा को पूरी तरह निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ दिया है। इसलिए निजी क्षेत्र में पिछले 10 वर्षों में 75 फीसदी वृध्दि हुई है और सरकारी क्षेत्र में महज 5 फीसदी। उच्च शिक्षा अभी भी सभी इच्छुक छात्रों को उपलब्ध नहीं हैं।
प्रश्न: क्या आप इस विचार से सहमत है कि विदेशी पूंजी निवेश उच्च शिक्षा क्षेत्र को ठीक करने के लिये एक मात्र रास्ता है? क्या कोई अन्दरूनी समाधान उपलबध नही है?
उत्तार: गम्भीरता के साथ जिस विकल्प की बात की जा रही है वह यह कि उच्च शिक्षा को विदेशी पूंजीनिवेश के लिए खोल देने से इसकी बढ़ती हुई मांग को पूरा किया जा सकेगा। मैं इसे एक भ्रम मानता हूँ। यह ऐसा छलावा है जो वास्तविकताओं को अनदेखा करता है। विदेशी पूंजी निवेशक साधारणतया: निर्माण के क्षेत्रो में या बैकिंग जैसी सेवा के क्षेत्र में निवेश करते हैं। जब शिक्षा में निवेश का मामला आता है तो वे अपने कापीराइट युक्त शिक्षा उत्पादों, जैसे कोर्सवेयर आदि, को बेचने में ही रुचि रखते है। वे इस देश में शिक्षा क्षेत्र में एक धेला भी लेकर नहीं आने वाले।
अभी भी विदेशी निवेश प्रमोशन बोर्ड द्वारा बनाये गये नियमों के तहत 'आटोमेटिक रुट' के रास्ते विदेशी निवेशक भारत में आ सकते हैं। परन्तु पिछले 10 वर्षो में, यद्यपि भारत में लगभग 150 किस्म के विदेशी शिक्षा कार्यक्रम उपलब्ध कराये जा रहे हैं, परन्तु विदेशी निवेशको: ने यहाँ एक पैसा भी निवेश नहीं किया है। वे अभी भी इस तरह के पाठयक्रम चला रहे है जिनका कुछ हिस्सा भारत में तथा कुछ हिस्सा विदेशों में पूरा करना पड़ता है या ऊँची फीस के बदले बिना किसी गुणवत्ताा की डिग्री कोर्सो की बिक्री कर रहे है। इसलिए, विदेशी पूंजी निवेशकों से यह उम्मीद करना कि वे भविष्य में भारत में पूंजी निवेश करेंगें, एक काल्पनिक बात है।
अब हमें उन पूंजी निवेशकों को भी देखना चाहिए जो हमारी उच्च शिक्षा में निवेश करने के इच्छुक हो सकते है। एम.आई.टी., हावर्ड विश्वविद्यालय, स्टेन्फोर्ड, येल और प्रिंसटन जैसे विश्वविद्यालय भारत के उच्च शिक्षा के गिने चुने संस्थानो के साथ शोध और विकास हेतु विद्वानों के आदान-प्रदान तथा ग्रीष्मकालीन लघु पाठयक्रमों जैसे कामों में जुड़ना चाहेंगें। भारत में अपनी डिग्री देने में उनकी कोई रूचि नहीं होगी। यदि वे ऐसा करते भी है तो केवल सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठित संस्थानो के साथ जुड़कर ही ऐसा करेंगे। केवल दूसरे या तीसरे दर्जे के विदेशी सस्ंथान ही यहां अपनी दुकान खोलने के लिए आ सकते हैं। पहले तो ये संस्थान भी विदेशी छात्रो को अपने घरेलू संस्थानो में दाखिला लेने के लिए ही प्रोत्साहित करना चाहेगे। किन्तु यह देखकर कि अधिकांश भारतीय इनके घरेलू कैम्पस में जाकर महंगी शिक्षा का खर्चा बरदास्त नहीं कर सकते, वे अपने कार्यक्रम इस देश में भी शुरु कर सकते हैं। इस समय लगभग 150 ऐसे पाठयक्रम देश में उपलब्ध भी है जिनमें लगभग 15,000 भारतीय पढ़ रहे है। इनके बारे में सही आंकड़े उपलब्ध नहीं है क्योंकि इनकी मानिटरिंग का काम कोई एजेंसी नहीं कर रही।
परन्तु यदि आप पिछले दस वर्षों के दौरान शुरु किये गये इन 150 पाठयक्रम की गुणवत्ताा की जांच पड़ताल करें तो आप पायेंगें कि ये दूसरे या तीसरे दर्जे के विदेशी संस्थानों द्वारा चलाये जा रहे हैं और इनका उद्देश्य केवल व्यावसायिक है। इन संस्थानों ने यहां अपना कोई कैम्पस नहीं खोला है बल्कि दूसरे दर्जे के निजी भारतीय संस्थानों के साथ गठबन्धन करके व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए काम कर रहे है।
इनकी कार्यप्रणाली का दुखद पहलू यह भी है कि इनके द्वारा चलाये जा रहे कोर्सों की इनके अपने देश में ही कोई मान्यता नहीं है। एक सर्वे के मुताबिक 150 कोर्सो मे से 44 उनके अपने देशों में ही अमान्य हैं। ये संस्थान भारतीयों को मूर्ख बना कर और उनकी विदेशी डिग्री की लालसा का फायदा उठा कर केवल मुनाफा कमा रहे हैं।
केवल एक पूंजी निवेशक का उदाहरण अभी तक मिलता है। वह है अमरीका का निजी व्यावसायिक संस्थान सिल्वान इंस्टीटयूट जिसने हैदराबाद में अपना कैम्पस खोला। इस संस्थान का एक आफिस मलेशिया में है और वहीं से यह भारतीय शाखा को संचालित कर रहा है। लेकिन इसने विद्यार्थियों और अपने फैकल्टी सदस्यों को बिना बताये शीघ्र ही अपना बोरिया विस्तर समेट लिया था। दो और ऐसे विदेशी संस्थान हैं जिन्होने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक तरीकों से भारत में प्रवेश किया। ये है-पिट्सबर्ग का कार्नेगी मैलन विश्वविद्यालय और शिकागो का इलीनोय इंस्टीटयूट आफ टेकानालाजी जो इजीनियरिंग परास्नातक की डिग्री कोर्स चलाता है। ये दोनो भी असफल सिध्द हुऐ क्योंकि इनमें फीस बहुत ज्यादा थी। इसलिए इस देश मे उच्च शिक्षा में विदेशी पूंजी निवेश आयेगा, यह अपेक्षा एक छलावा ही है। यदि हम यह मान भी लें कि विदेशी पूंजी निवेश आयेगा तो मेरा आकलन यह है कि यह धन इस देश के निजी संस्थानो द्वारा कमाया गया काला धन होगा जो विदेशी रास्तों के द्वारा यहाँ पहुंचेगा।
प्रश्न: यदि विदेशी पूंजी निवेशक यहां उच्च शिक्षा में निवेश करने में रूचि लेते हैं तो इस क्षेत्र में उनका योगदान क्या होगा? वे किस सीमा तक हमारी राष्ट्रीय महत्वाकाक्षओं, जरूरतों और भारत की जमीनी हकीकतों के साथ तालमेल बैठा सकेंगे?
उत्तार: यदि यह मान भी लिया जाय कि विदेशी पूंजी निवेशक इस देश में आ ही जायेंगें, तो भी इस देश की जरुरतों या यहां के सास्कृतिक संदर्भो के मुताबिक पाठयक्रम शुरु करने में उनकी कोई रुचि नहीं होगी। उदाहरण्ा के लिए वे प्रान्तीय भाषाओं के विकास में कोई रुचि नही लेंगें, परन्तु वे भारतीय संस्थानो के साथ बराबरी का दर्जा मांगेगें। भारत में औपचारिक शिक्षा एक जनहितार्थ उपक्रम मानी जाती है। भारत में बहुत से निजी शिक्षण संस्थान जनहितार्थ खुले हुए हैं हांलाकि वे खुले रूप से मुनाफा कमाते है। डब्लू.टी.ओ. के गैट्स (जनरल एग्रीमेंट आन ट्रेड इन सर्विसेज) कानूनों के तहत एक प्रावधान है जिसे 'राष्ट्रीय व्यवहार' (छंजपवदंस ज्तमंजउमदज) का प्रावधान कहते है जिसका अर्थ यह होता है कि आपको विदेशी संस्थानो के साथ भी 'राष्ट्रीय व्यवहार' करना होगा। अब हम अपने निजी संस्थानों को चैरिटेबल संस्थान मानते है तो उन्हें भी चैरिटेबल संस्थान मानना होगा। चैरिटेबल संस्थानों को टैक्स से छूट मिली होती है।
इसी तरह से, जैसे हमारे निजी संस्थान प्रवेश नियमों पर किसी तरह का नियन्त्रण या फीस निर्धारण पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं चाहते, विदेशी संस्थान भी ऐसा ही चाहेंगे। वे शिक्षा में आरक्षण नीति को लागू करना भी नहीं चाहेंगे।
यदि आप सोचते हैं कि ये संस्थान गरीबों या वंचितों की जरूरतों को पूरा करेगें तो ऐसा सोचना गलत है। इसलिए विदेशी पूंजी निवेशकों को यहां अनुमति देने का मतलब होगा गरीबों और अमीरों के बीच की खाई को और चौड़ा करना। इसके ऊपर, वे हमारे उच्च संस्थानों के उच्च शिक्षकों को ऊँचा वेतन एवं अन्य सुविधाओं का लालच देकर यहां से भगा ले जायेंगें। वे किसी अर्थवान निवेश के बगैर ही और हमारी जरूरतों को पूरा किये बिना ही ऊँचा मुनाफा कमा कर यहां से ले जायेंगें।
भारत में सरकार ने उच्च शिक्षा को वैसे भी निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ दिया है। और अब यदि विदेशी निवेशकों के लिए भी दरवाजे खोल दिये जायेंगें,और वे यहां आना शुरु कर देंगें तो सरकार को अपनी नीति को जायज ठहराने का एक और तर्क मिल जायेगा।
प्रश्न: सरकार हमेशा पैसे की कमी का रोना रोती है?
उत्तार: मैं नही मानता कि इस देश में उच्च शिक्षा के लिए पैसे की कमी कोई समस्या है। यदि सरकार जी.डी.पी. के 6 प्रतिशत को शिक्षा में निवेश करने का अपना वादा पूरा कर दे, इसमे 1 प्रतिशत उच्च शिक्षा के लिए होगा, और 0.5 प्रतिशत वोकेशनल एजुकेशन के लिए होगा, तो बिना निजी क्षेत्र की मदद के हम विश्वस्तरीय बड़े संस्थान खडे क़र सकते हैं। फिलेन्थ्रोपिक संस्थाओं और कार्पोरेट समूहों को प्रोत्साहित करने की नीति पर सरकार चल रही है। तो इस प्रकार से बिना विदेशी पूंजी निवेश के हम उच्च शिक्षा को चला सकते है।
प्रश्न: विदेशी पूंजी निवेश के सम्बन्ध में अन्य देशों का कैसा अनुभव रहा है?
उत्तार: वाणिज्य मंत्रालय के पर्चे में भी अन्य देशों में विदेशी निवेश की चर्चा की गयी है। दुर्भाग्य से, मत्रांलय द्वारा प्रस्तुत मूल्यांकन भ्रमपूर्ण और अति सरलीकृत है। उदाहरण के लिए, इंग्लैड में कुल 150 उच्च शिक्षण्ा संस्थानों में से केवल 4 ही विदेशी (अमरीकी) विश्वविद्यालय है। इन 4 के मामले में, बिट्रिश सरकार ने उन्हें मुनाफा कमाने वाले संस्थान के रूप में मान्यता दे रखी है न कि चैरिटेबिल संस्थान के रूप मे। वहां केवल एक राष्ट्रीय निजी विश्वविद्यालय है जो चैरिटेबल संस्थान के रूप में काम कर रहा है। अन्य सभी सार्वजनिक वित्ता पोषित संस्थान है। इंग्लैण्ड के कानून निजी विश्वविद्यालयों को अनुमति नहीं देते।
मलेशिया में अलग ही स्थिति है। इस देश की भूमिपुत्र नीतियों के कारण यहां की सरकार चीनी और गैर मलाया लोगों के लिए शिक्षा की वे सुविधाऐं उपलब्ध नहीं कराती जो मलाया लोगो के लिये कराती है। वहाँ की सरकार ने गैर मलाया और चीनी लोगों को उच्च शिक्षा उपलब्ध कराने के लिये निजी और विदेशी निवेशकों को वहाँ संस्थान खोलने की अनुमति दे रखी है।
चीन में विदेशी शिक्षा संस्थानों के लिए बड़े कड़े कानून है। एन.आई.आई.टी. चीन में अपना संस्थान चलाता है। परन्तु यह किसी प्रकार की डिग्री नहीं देता। यह केवल व्यावसायिक, तकनीकी, निपुणता केन्द्रित और व्यापार-केद्रित प्रोग्राम चलाता है। जैसा कि यह भारत में भी करता हैं। सिंगापुर में कुछ चुंनीदा विश्व स्तरीय शिक्षण संस्थानों को अपना कार्यक्रम चलाने की अनुमति मिली हुई है। कौन उच्च शिक्षा पाठयक्रम चलायेगा, इस बारे में सिंगापुर में कड़े कानून हैं। ऐसा सिंगापुर के निवासियों के लिये नहीं है क्योंकि उनकी सभी उच्च शिक्षा सबंधी जरूरतों को सरकार पूरा करती है। केवल विश्व स्तरीय संस्थान ही सिंगापुर में अपना संस्थान खोल सकते है, वे भी विदेशी विद्यार्थियों को आर्किषित करने के लिए। सिंगापुर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के साथ मिल कर एम.आई.टी. वहां एक पाठयक्रम चला रहा हैं। आस्ट्रेलिया के 120 विश्वविद्यालयों मे से केवल एक-न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय को सिंगापुर में कैम्पस खोलने की इजाजत मिली है और वह भी वास्तविक पूंजी निवेश करने के बाद। यह विश्वविद्यालय भी भारतीय, इण्डोनेशियाइयों, मलाया लोगो के लिये ही पाठयक्रम चलाता है, सिंगापुर वासियों के लिए नहीं। अन्य शब्दों में कहें तो सिंगापुर विदेशी विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा वह भी विश्व स्तरीय, प्रदान करने का केन्द्र बनना चाहता है जिससे वे आस्ट्रेलिया या अमरीका न जाय और वहाँ आये। इसलिएं वहां कड़े नियन्त्रण्ा हैं।
इण्डोनेशिया जैसे देशों में भी यदि कोई विदेशी विश्वविद्यालय कारोबार करना चाहता है तो उसकी अपने देश और इण्डोनेशिया दोनो जगह मान्यता होनी चाहिए। भारत ही केवल ऐसा एक देश है जहां कोई भी आ सकता है और किसी भ्ी प्रकार की डिग्री का विज्ञापन कर सकता है। इस तरह की बहुत सी डिग्रियाँ और डिप्लोमा पाठयक्रम चल रहे है जिनकी कोई मान्यता नहीं है और वे मूल्यहीन है। उनका पाठयक्रम (करीकुला) का कोई स्तर नहीं है, और ये संस्थान अखबारों में पूरे पृष्ठो के आर्कषक विज्ञापन देकर ऐसे पाठयक्रमों में विद्यार्थियों को आकर्षित करते हैं जिनको उनके अपने देश में मान्यता नहीं मिली हुई। जब ऐसे विज्ञापनों को देखते हैं तो बहुत से छात्र इनके जाल में फंस जाते है। और दुर्भाग्य से भारत में ऐसी कोई सरकार की एजेन्सी या प्राधिकरण नहीं हैं जो इस प्रकार के संस्थानो की निगरानी करें और उनको (विदेशी शिक्षण संस्थानाें), कहे कि छात्रों को प्रवेश देने से पहले आप अपना पंजीकरण कराओ। कुछ संस्थान छात्रों को दाखिल करते हैं, पाठयक्रम चलाते हैं और अचानक गायब हो जाते हैं। छात्रों को यहां कोई सुरक्षा नही है।

1 comment:

Chirag Patel said...

nayi azadi magazine subscribe karne keliye kya karna padenga