Thursday, March 29, 2007

गर्मागर्म जलेबी पैकेट में ?

बलाश
अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया है कि दिल्ली की गलियों में खुली जलेबी नहीं बिकेगी। हलवाइयों की दुकानें, रेिढ़यां, ठेले जो खाने-पीने के सामन बेच रहे हैं, वे बीमारियों के अड्डे हैं। जो भी खाने-पीने के सामान हों, वे ठीक तरह से डिब्बा बन्द होने चाहिए।
इसी दिल्ली में 5 साल पहले छोटी ठेलियों पर छोटी हाथ की मशीनों या छोटे मोटर से चलने वाली मशीनों से पेर कर बनने वाले गन्ने के रस की बिक्री पर रोक लगा दी थी क्योंकि दिल्ली की सरकार को लगता था कि इस तरह से पेरा हुआ गन्ने का रस बीमारियां फैलाता है।
लगता है वे दिन लद गये जब सबेरे-सबेरे हीरा हलवाई की गरम-गरम जलेबियां कड़ाव से निकली हुए दौने में रख कर खाने का मजा उठाते थे। या तो हीरा हलवाई दुकान बंद कर देगा, या फिर उसे अपनी जलेबियां अच्छी तरह से पैक करनी होंगी और आप अगर उन्हें गरम-गरम खाना चाहते हैं तो घर आकर अपने माइक्रोओवन में रख कर पहले गरम कीजिए। तभी तो माइक्रोओवन का महत्व आपको समझ में आयेगा।
अगर हमारे हीरा भाई किसी तरह दुकान बचा भी ले गये तो उन्हें पेप्सी या वालमार्ट से कम्पटीशन लेना होगा। चिप्स वाला पेप्सी जलेबी को दिन में 6 बार टीवी पर दिखायेगा। उसमें कुछ विटामिन भी भर देगा, उसकी जलेबी खाने से बच्चे स्मार्ट हो जायेंगे, तब बेचारे हीरा भाई कहां ठहरेंगे?
यह हो क्या रहा है ? यह एक घटना से साफ हो जायेगा। हमारे एक दोस्त दिल्ली में मंत्री बन गये। हमने अपने दोस्त से कहा, आप शिक्षामंत्री हैं, हमारे एक और दोस्त आपके साथ रक्षामंत्री हैं। शिक्षामंत्री, रक्षामंत्री दोनों ही स्वदेशी के कायल हैं। क्यों न आप लोग पेप्सी कोला, कोका कोला को बन्द करा देते? हमारा लायक दोस्त बोला, कोई इस काम के लिए तैयार नहीं। मैं लाचार हूं। अपने दोस्त को ढांढस बंधाते हमने कहा, दुखी मत होइए। हम तो सरकार नहीं चला रहे। हमें सलाह दो कि हम क्या करें। लायक दोस्त ने कहा, 'ये गन्ने का रस बेचने वाले बड़े गन्दे होते हैं, इन्हें सफाई सिखाओ।
दरअसल इन 'गगन विहारियों' का नजरिया बदल गया है। इनको भारत की मिट्टी, भारत के लोग, भारत के सामान गन्दे लगते हैं। गन्ने का रस गन्दा है, क्योंकि वह बोतल बंद नहीं है, ताजा निकाला गया है। पेप्सी-कोक शुध्द हैं क्योंकि वे बोतल बंद हैं भले ही उसमें जहरीले रसायन मिले हों, भले ही उसमें कीटनाशक मिले हों। हमारी दृष्टि बदल दी गयी है। दिन-रात आक्रामक विज्ञापनबाजी से हमें खुद सोचने की जरूरत नहीं छोड़ी है। हमारे लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा है, यह बड़ी-बड़ी कंपनियां विज्ञापन से बनाती हैं। मनोविज्ञान के सहयोगिता सिध्दांत का लाभ उठा कर ये हमारे मन में बैठे प्रतीकों के साथ अपना ब्रांड जोड़ देते हैं। अत: बिना सोचे-समझे उसे हम अपना लेते हैं। हमारे दिमाग में ब्रांड बैठा दिये गये हैं। यदि किसी चीज का ब्रांड नहीं है तो हम मान लेते हैं कि वह खरे मानक की नहीं है।
ब्रांडों की इस दुनिया में छोटे उत्पादक और छोटे बिक्रेता के लिए कोई जगह नहीं है। यही कारण है कि जब कोई बड़े ब्रांड का स्टोर खुल जाता है तो लोग अपनी पुरानी दुकान से सामान न खरीद कर उस ब्रांड स्टोर की तरफ भागते हैं। पिछले 10-15 सालों में हमारे छोटे-मझोले दुकानदारों, खुदरा व्यापारियों ने ज्यादा कमीशन के चक्कर में नामीगिरामी ब्रांडों के सामानों को बेचा। जब एक बार लोगों के दिमाग में ब्रांड बैठ गया तो ब्रांड वाले खुद अपने स्टोर खोलने निकल पड़े हैं। इस समय देश में खुदरा बाजार में रिलायंस, भारती, आईटीसी, टाटा की मदद से वाल-मार्ट, मैट्रो,टैस्को और कारफूर घुस रहे हैं और अगर इसे न रोका गया तो ये चार सालों में ही खुदरा व्यापारी-दुकानदार, अपनी दुकानें बंद करके सड़क पर खोमचा भी नहीं लगा सकेंगे।

1 comment:

Unknown said...

हम कैसे जुड़ सकते हैं आप के आन्दोलन से?
जयपुर में किस्से व् कन्हा सम्पर्क करे?