Thursday, March 29, 2007

स्विस बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनी-नोवारटिस की भारतीय पेटेन्ट कानून को चुनौती

स्विटजरलैण्ड की दवा बहुराष्ट्रीय कम्पनी नोवारटिस ने मद्रास उच्च न्यायालय में थोड़े से बदलावों के साथ एक ऐसी दवा को पेटेन्ट कराने के लिये अर्जी दी है जिसको यह पहले ही 1993 में पेटेन्ट करा चुकी है। दवा का नाम ग्लीवाक (ळसममअंब) है। यह रक्त कैंसर-ल्यूकेमियां के इलाज में काम आती है। कम्पनी ने भारतीय पेटेन्ट एक्ट के सेक्शन 3 (डी) को कोर्ट में चुनौती दी है। यह सेक्शन 3 (डी) भारतीय संसद ने मार्च 2005 में ही पेटेन्ट कानून में जोड़ा है। विश्व व्यापार संघटन में दवा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाब में ही भारत को संशोधित पेटेन्ट कानून स्वीकार करना पड़ा था। इसी संशोधित पेटेन्ट कानून में सरकार ने सेक्शन 3 (डी) भी जोड़ दिया था जो उपलब्ध दवाओं के अणुओं या फार्मूलों में छोटा सा बदलाव करके ही चालाकी पूर्ण पेटेन्ट लेने के बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के इरादों को रोकता है।
भारत को अपने पेटेन्ट कानून-1970 में बुनियादी बदलाव करने पड़े थे। इस पेटेन्ट कानून को अंकटाड ने एक माडल पेटेन्ट कानून की संज्ञा दी थी। इन बदलावों के द्वारा भारतीय पेटेन्ट कानून को ट्रिप्स के अनुरूप बनाया गया था। उत्पाद पेटेन्ट का प्रावधान शामिल किया गया और पेटेन्ट अवधि को 5-7 वर्ष से बढ़ा कर 20 वर्ष कर दिया गया। इन संशोधनों का काफी विरोध हुआ था। वामपंथी पार्टियों ने विरोध किया था। परन्तु संशोधित कानून में जोड़े गये सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा उपायों के प्रावधानों ने विपक्ष को शांत किया। ये वहीं प्रावधान है जिनको दवा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अब निशाना बना रही है।
ग्लीवाक दवा का मामला भारतीय पेटेन्ट कानून के लिए एक परीक्षा साबित होने जा रहा है। यदि नोवारटिस कम्पनी मुकदमा जीतती है और ग्लीवाक पर पेटेन्ट हासिल कर लेती है, तब तमाम जीवन रक्षक दवाओं पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा पुन: पेटेन्ट लेने का दरवाजा खुल जायेगा। और फिर ये दवाऐं सामान्य आदमी की पहुंच से बाहर हो जायेंगी। उदाहरण के लिए ग्लीवाक की घरेलू कीमत महज 8,000 रुपया महीना पड़ती है जबकि नोवारटिस द्वारा पेटेन्टड ग्लीवाक की कीमत 1,20,000 रुपया महीना बैठती है। अन्य उदाहरण एड्स की दूसरी श्रेणी की दवाओं के मामले में उपलब्ध हैं। ये दवाइयाँ 1995 से पहले भी ज्ञात थीं और इसी कारण भारत में इन दवाइयों पर अब पुन: पेटेन्ट नहीं दिया जा सकता। परन्तु दवा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ इन दवाओें के फार्मूलों में हल्का परिवर्तन करके, या दो दवाओं का मिश्रण बना कर और उसे नयी दवा का नाम देकर नया पेटेन्ट लेने की कोशिश कर रही है। ये चाल बाजियाँ बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हमेशा करती रहती है जिससे उनका पेटेन्ट अधिकार 'एवरग्रीन' बना रहे। यदि नये भारतीय पेटेन्ट कानून में से सेक्शन 3 (डी) निकाल दिया जाता है या उसे कमजोर कर दिया जाता है, जैसा कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की मांग है, तो ये चाल बाजियाँ कामयाब हो जायेंगी और भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा की धज्जियाँ उड़ जायेगीं। इसका परिणाम होगा एड्स की दवाइयाँ 20-25 गुना महंगी हो जायेंगी। भारत सस्ती एड्स दवाओं का उत्पादक है, और इसकी दवाइयाँ पूरे विश्व में जाती है जिससे भारतीय जनों के स्वास्थ्य की रक्षा की जा सके। इस बीच, भारत को सेक्शन 3 (डी) के पक्ष में भारतीय न्यायालयों या अन्य अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर जोरदार दलीलें प्रस्तुत करनी चाहिए और उसे बचाना चाहिए।

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